हम लोग सनातनी हैं,
लेकिन लोग कई बार प्रश्न करते हैं- 'महाराज ! शिवरात्रि को शिवजी की, जन्मष्टमी को कृष्ण भगवान् की, नवरात्रि में देवी जी की और गणेश चतुर्थी को गणेश जी की पूजा करते हैं।
क्या अपने यहाँ एक इष्ट नहीं होना चाहिये?
तभी चित्त की एकाग्रता होगी जब एक इष्ट होगा।
‘जैसे विष्णु भगवान् के सहस्रनाम हैं तो हज़ार नाम वाले हज़ार नहीं एक हैं; जैसे उसके नाम अनेक हैं, ऐसे ही उसके रूप भी अनेक हैं।
अतः इष्ट तो एक ही सच्चिदानन्द परमात्मा है।
इसलिये परमात्मा के दस-बीस-पचास-सौ नाम-रूप ही नहीं, अनेक नाम-रूप हैं; परन्तु परमात्मा एक ही है।
भगवान् के अनन्त नाम हैं।
इसी प्रकार उनके अनन्त रूप हैं।
“एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"
अतिधन्यवेद कहता है कि इष्ट एक ही हुआ करता है।
इष्ट अनेक नहीं हुआ करते ।
पुरानी औरतें सोने का गहना पहनना चाहती थीं।
उनका इष्ट सोना था।
परंतु क्या सोने की सिल अपने माथे पर रख कर घूमती थीं?
सोने के अनेक गहने बनाये जाते थे जैसे कर्णफूल हार आदि।
अतः वे एल्यूमिनम आदि के गहने पहने नहीं घूमती थीं!
उनका आकर्षण गहने के प्रति न होकर सोने के प्रति था।
इसी प्रकार हिंदुओं का इष्ट एक ही है।
वह कभी चार हाथ वाला, कभी पाँच मुँह वाला तो कभी छः मुँह वाला बनकर हमारे सामने आता है, कभी औरत का रूप तो कभी हाथी, आदि का रूप भी लेकर आ जाता है।
भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन हमारी बुद्धि में अनेकता लाने के लिये नहीं वरन् भेदों को देखते हुए भी एकता पहचनवाने के लिये है।
दृष्टि यह प्राप्त करनी है कि प्राणिमात्र के हृदय में सच्चिदानंद परमात्मा एक ही है और सारे प्राणियों में मैं हूँ, मेरे अंदर वास्तविकता एकमात्र सच्चिदानन्द है।
इष्ट तो एक सच्चिदानन्द है, उसके सिवाय और कोई नहीं है।
उसके ही ये अनन्त रूप हैं।
इन रूपों के अंदर कभी सान्तता नहीं आने वाली है।
ऐसा नहीं होने वाला है कि इतने रूप ले लिये, आगे और रूप नहीं हो सकते
-श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वज्ञ मनीषी ब्रह्मलीन महेशानंद गिरी जी
लेकिन लोग कई बार प्रश्न करते हैं- 'महाराज ! शिवरात्रि को शिवजी की, जन्मष्टमी को कृष्ण भगवान् की, नवरात्रि में देवी जी की और गणेश चतुर्थी को गणेश जी की पूजा करते हैं।
क्या अपने यहाँ एक इष्ट नहीं होना चाहिये?
तभी चित्त की एकाग्रता होगी जब एक इष्ट होगा।
‘जैसे विष्णु भगवान् के सहस्रनाम हैं तो हज़ार नाम वाले हज़ार नहीं एक हैं; जैसे उसके नाम अनेक हैं, ऐसे ही उसके रूप भी अनेक हैं।
अतः इष्ट तो एक ही सच्चिदानन्द परमात्मा है।
इसलिये परमात्मा के दस-बीस-पचास-सौ नाम-रूप ही नहीं, अनेक नाम-रूप हैं; परन्तु परमात्मा एक ही है।
भगवान् के अनन्त नाम हैं।
इसी प्रकार उनके अनन्त रूप हैं।
“एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"
अतिधन्यवेद कहता है कि इष्ट एक ही हुआ करता है।
इष्ट अनेक नहीं हुआ करते ।
पुरानी औरतें सोने का गहना पहनना चाहती थीं।
उनका इष्ट सोना था।
परंतु क्या सोने की सिल अपने माथे पर रख कर घूमती थीं?
सोने के अनेक गहने बनाये जाते थे जैसे कर्णफूल हार आदि।
अतः वे एल्यूमिनम आदि के गहने पहने नहीं घूमती थीं!
उनका आकर्षण गहने के प्रति न होकर सोने के प्रति था।
इसी प्रकार हिंदुओं का इष्ट एक ही है।
वह कभी चार हाथ वाला, कभी पाँच मुँह वाला तो कभी छः मुँह वाला बनकर हमारे सामने आता है, कभी औरत का रूप तो कभी हाथी, आदि का रूप भी लेकर आ जाता है।
भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन हमारी बुद्धि में अनेकता लाने के लिये नहीं वरन् भेदों को देखते हुए भी एकता पहचनवाने के लिये है।
दृष्टि यह प्राप्त करनी है कि प्राणिमात्र के हृदय में सच्चिदानंद परमात्मा एक ही है और सारे प्राणियों में मैं हूँ, मेरे अंदर वास्तविकता एकमात्र सच्चिदानन्द है।
इष्ट तो एक सच्चिदानन्द है, उसके सिवाय और कोई नहीं है।
उसके ही ये अनन्त रूप हैं।
इन रूपों के अंदर कभी सान्तता नहीं आने वाली है।
ऐसा नहीं होने वाला है कि इतने रूप ले लिये, आगे और रूप नहीं हो सकते
-श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वज्ञ मनीषी ब्रह्मलीन महेशानंद गिरी जी
जिसे धारण किया जाय उसे धर्म कहते हैं । अपने वास्तविक स्वभाव को धारण करना ही स्वधर्म है,यही अध्यात्म है । यह स्वधर्म का सामान्य अर्थ है ।
गीता के अनुसार अपने वर्ण के अनुसार कर्म करते हुए ही आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास करना चाहिए,यह स्वधर्म का वर्णाश्रम के अन्तर्गत अर्थ है ।
वर्ण का अर्थ है जो आवरण बनकर कवच की तरह रक्षा करे,पिछले कर्मों के अनुसार ही वर्ण मिलता है और वर्ण के अनुसार ही अगले कर्म करने पर चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति सम्भव है । इसके विपरीत आचरण करने पर पिछले और आगे के कर्म परस्पर टकराते हैं तो उचित कर्मफल भी नष्ट होते हैं ।
वर्ण के अनुसार स्वधर्म में कौन कौन से कर्म आते हैं इसका गीता में स्पष्ट निर्देश है । गीता प्रतिदिन कुछ न कुछ पढ़ें । गीताप्रेस का अन्वय सहित अर्थ वाला प्रकाशन सर्वोत्तम है क्योंकि उसकी सहायता से मूल वाक्यविन्यास में मूल कथन का अर्थ लगा सकते हैं,अनुवादकों की गलतियों से बचने का यही उचित तरीका है । जिन शब्दों का अर्थ लगा सकते हैं उनके पर्यायवाचियों से बचें,वरना सही अर्थ नहीं लगेगा ।
- श्री विनय झा जी
गीता के अनुसार अपने वर्ण के अनुसार कर्म करते हुए ही आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास करना चाहिए,यह स्वधर्म का वर्णाश्रम के अन्तर्गत अर्थ है ।
वर्ण का अर्थ है जो आवरण बनकर कवच की तरह रक्षा करे,पिछले कर्मों के अनुसार ही वर्ण मिलता है और वर्ण के अनुसार ही अगले कर्म करने पर चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति सम्भव है । इसके विपरीत आचरण करने पर पिछले और आगे के कर्म परस्पर टकराते हैं तो उचित कर्मफल भी नष्ट होते हैं ।
वर्ण के अनुसार स्वधर्म में कौन कौन से कर्म आते हैं इसका गीता में स्पष्ट निर्देश है । गीता प्रतिदिन कुछ न कुछ पढ़ें । गीताप्रेस का अन्वय सहित अर्थ वाला प्रकाशन सर्वोत्तम है क्योंकि उसकी सहायता से मूल वाक्यविन्यास में मूल कथन का अर्थ लगा सकते हैं,अनुवादकों की गलतियों से बचने का यही उचित तरीका है । जिन शब्दों का अर्थ लगा सकते हैं उनके पर्यायवाचियों से बचें,वरना सही अर्थ नहीं लगेगा ।
- श्री विनय झा जी
जो हिन्दूराष्ट्र में आपको करना है दान-धर्म, पूजा, जप, तप, यज्ञ, कथा, सत्संग, भजन, नाम संकीर्तन
वह आज भी कर सकते,
करिये,
जो विश्वगुरु होने पर करते,
उसे आज भी कर सकते,
करिये 💐
__
धर्म की अपेक्षा दूसरे से क्यों करें ?
स्वयं धार्मिक रहें
साभार - सोमदत्त द्विवेदी जी
वह आज भी कर सकते,
करिये,
जो विश्वगुरु होने पर करते,
उसे आज भी कर सकते,
करिये 💐
__
धर्म की अपेक्षा दूसरे से क्यों करें ?
स्वयं धार्मिक रहें
साभार - सोमदत्त द्विवेदी जी
केवल वर्ण और जाति ही क्यों मिटानी है आपको ? परिवार भी मिटा दीजिये। माता, पिता, सास, बहू, बेटा, बहन, आदि में भी कितने झगड़े चल रहे हैं तो एकता आयेगी कैसे ? जाति से अधिक मुकदमे तो परिवार के नाम पर चल रहे न तो परिवार को मिटाकर हिन्दू एकता लाओ, केवल नर मादा रहने दो और उसके बाद उसका भेद भी मिटा दो। काल्पनिक पार्टियों के नाम पर बंटे रहना स्वीकार है, पारिवारिक रिश्तों में बंटे रहना स्वीकार है लेकिन जिस शास्त्रीय वर्णाश्रम विधान से धर्म व्यवस्था पुष्ट है, उसमें मानसिक म्लेच्छ बना हिन्दू नहीं रहना चाहता है।
- निग्रहचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
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आर्य समाज का खण्डन
:–निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
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तुम ,
तुम्हारी सृष्टि ,
तुम्हारा नियम ,
बिधि तुम्हारी और
तुम्हारी इच्छा
मैं
भक्त तुम्हारा
तुम्हारी सृष्टि में ,
तुम्हारे नियम से बंधा हुआ ..
तुम्हारी इच्छा से जीवन मेरा ..
अर्पण, समर्पण , भक्ति , भाव
सब कुछ तुम्हारा...
सुख भी और दुःख भी ..
कर्म मेरा पीड़ा मेरी
सहानुभूति तुम्हारा ...
तुम ईश्वर
मैं सत्ता-हीन
ये जन्म-जन्मांतर का बन्धन हमारा ...
तन , मन , प्राण मेरा
और चरण तुम्हारा ...
तुम मेरे सर्वस्व
मैं दास तुम्हारा ...
😇
तुम्हारी सृष्टि ,
तुम्हारा नियम ,
बिधि तुम्हारी और
तुम्हारी इच्छा
मैं
भक्त तुम्हारा
तुम्हारी सृष्टि में ,
तुम्हारे नियम से बंधा हुआ ..
तुम्हारी इच्छा से जीवन मेरा ..
अर्पण, समर्पण , भक्ति , भाव
सब कुछ तुम्हारा...
सुख भी और दुःख भी ..
कर्म मेरा पीड़ा मेरी
सहानुभूति तुम्हारा ...
तुम ईश्वर
मैं सत्ता-हीन
ये जन्म-जन्मांतर का बन्धन हमारा ...
तन , मन , प्राण मेरा
और चरण तुम्हारा ...
तुम मेरे सर्वस्व
मैं दास तुम्हारा ...
😇
Forwarded from E - समिधा BOOKS
जय श्री राम
कुछ दिन पहले हमें 2 गाएं मिली जिनके चोट लगी हुई थी। हमने उनकी चोट का यथासंभव उपचार किया।
इस गौसेवा में सहयोग करने वाले सभी बंधुओं को बहुत- बहुत धन्यवाद।
https://youtu.be/Iw3HWU3k9Ow?si=B5WdXhj1X5Px_Vup
आप मुझे नीचे दिए गए upi id पर सहायता कर सकते है।
satyam9785@cnrb
कुछ दिन पहले हमें 2 गाएं मिली जिनके चोट लगी हुई थी। हमने उनकी चोट का यथासंभव उपचार किया।
इस गौसेवा में सहयोग करने वाले सभी बंधुओं को बहुत- बहुत धन्यवाद।
https://youtu.be/Iw3HWU3k9Ow?si=B5WdXhj1X5Px_Vup
आप मुझे नीचे दिए गए upi id पर सहायता कर सकते है।
satyam9785@cnrb
मूर्ति पूजा,,
कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)
ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।
प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?
उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।
प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।
प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।
प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।
उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।
प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।
उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्
प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।
प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )
हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।
औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।
2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।
3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।
4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।
भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।
यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।
मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)
हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी
कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)
ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।
प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?
उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।
प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।
प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।
प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।
उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।
प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।
उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्
प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।
प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )
हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।
औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।
2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।
3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।
4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।
भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।
यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।
मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)
हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी
नमस्कार है।
अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।
अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।
अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)
प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)
निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।
श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।
(निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )
दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।
जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।
अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक
अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।
अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।
अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)
प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)
निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।
श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।
(निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )
दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।
जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।
अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक
तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।
ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।
आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।
चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।
राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।
हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।
आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।
,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।
जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।
ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।
आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।
चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।
राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।
हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।
आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।
,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।
जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।
आक्षेप करने से यदि राष्ट्रहित हो हिन्दुहित हो सनातन हित हो तो अवश्य करें।यदि समन्वय से सर्वहित हो तो अवश्य इस विषय में उदारवादी जन विवेकी महानुभाव एकतापथ पर बढ़ें।
ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।
सङ्कलयिता
पूर्वाचार्यपदसरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य:
ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।
सङ्कलयिता
पूर्वाचार्यपदसरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य:
Forwarded from E - समिधा BOOKS
पूर्वज -हमारे!
पकवान -हमारे!!
श्रद्धा -हमारी!!!
अब हम गाय को खिलाएं या कौवों को, आखिर कुत्तों को परेशानी क्यों हैं ? 😂
पकवान -हमारे!!
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अब हम गाय को खिलाएं या कौवों को, आखिर कुत्तों को परेशानी क्यों हैं ? 😂
Forwarded from E - समिधा BOOKS
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खड्गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करौस्त्रिनयनां सर्वाड्गभूषावृताम् ।
शंखं संदधतीं करौस्त्रिनयनां सर्वाड्गभूषावृताम् ।
Forwarded from E - समिधा BOOKS
प्रच्छन्न इतिहास (History)
खड्गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिर: शंखं संदधतीं करौस्त्रिनयनां सर्वाड्गभूषावृताम् ।
आर्य समाज आदि के चक्कर में आकर अपने देवी देवताओं का अपमान ना करें। भविष्य में पछतावे के अलावा कुछ नही बचेगा।
मैं कुछ ex समाजी के अनुभव जल्द ही साझा करूंगा कि वो अब कितने पछतावे में रहते है। और अब सोशल मीडिया से दूर रहते है।
नमश्चण्डिकायै🙏
मैं कुछ ex समाजी के अनुभव जल्द ही साझा करूंगा कि वो अब कितने पछतावे में रहते है। और अब सोशल मीडिया से दूर रहते है।
नमश्चण्डिकायै🙏
Forwarded from E - समिधा BOOKS
"हरि अनंत हरि कथा अनंता"
सारस्वत कल्प में नवमी के बाद दशमी को रावण वध हुआ था।
विजयदशमी की अनंत शुभकामनाएं समस्त सनातनियों को ।
जय जय श्री राम
@Esamidha
सारस्वत कल्प में नवमी के बाद दशमी को रावण वध हुआ था।
विजयदशमी की अनंत शुभकामनाएं समस्त सनातनियों को ।
जय जय श्री राम
@Esamidha
Forwarded from Ancient library
समाजी अद्वैत समझते नही है चल देते है अद्वैत का खंडन करने।
समाजी कहता है की देखो आदिशंकर ने ब्रह्म को निराकार बोला है। अब मुझे समझ ही नही आता इसमे नई बात क्या है सभी अद्वैत आचार्य ब्रह्म को निराकार ही मानते है। अद्वैत मे ब्रह्म तो अकर्ता है। साकार होना दूर की बात है। निरोपाधिक ब्रह्म निराकार ही है और वह कभी साकार नही होता है। अद्वैत मे माया उपाधि से ब्रह्म का साकार रूप कल्पित है, इससे ब्रह्म साकार नही होता। जैसे आकाश मे सूर्य एक ही होता है परंतु अनेक जल भरे हुए घड़े मे अनेक सूर्य दिखाई देता है। वैसे ही अकर्ता ब्रह्म माया उपाधि से जगत आदि प्रपंच को रचता है।
समाजी आधा भाष्य पढ़ते है इसलिए मूर्खता कर बैठते है।
आदि शंकर से प्रश्न पूछा - परन्तु साकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली और निराकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली श्रुतियों के रहते निराकार ब्रह्मका अवधारण किस प्रकार किया जाता है, साकार ब्रह्म का अवधारण क्यों नहीं किया जाता ? ऐसी शंका होनेपर सूत्रकार उत्तर सूत्र पढ़ते हैं-
सिद्धांत पक्ष - रूपादि आकार से रहित ही ब्रह्म है, ऐसा अवधारण करना चाहिए, ब्रह्म रूपादियुक्त है, ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए। किससे ? इससे कि श्रुति- वाक्यों में निराकार ब्रह्म ही प्रधानरूप से वर्णित है।(३.२.१३/३.२.१४)
आदिशंकर द्वारा ऐसा कहने पर पूर्व पक्ष मे फिर से प्रश्न उठाया
प्रश्न - यदि ब्रह्म निराकार है फिर तो साकार ब्रह्म को सिद्ध करने वाली श्रुति व्यर्थ हो जायेगी। इस पर कहते है -
सिद्धांत पक्ष - सूर्य आदि का प्रकाश बास आदि वक्र, ऋजु उपाधि को प्राप्त कर वक्राकार-सा और ऋजु आकार-सा होता है, इसी प्रकार ब्रह्म भी तत्तत् पृथिवी आदि उपाधि प्राप्त करके पृथ्व्यादि आकार हो जाता है, अतः उपासना प्रकरण में पठित श्रुतियां उसी सोपाधिक ब्रह्म को विषय करती हैं, इसलिए वे श्रुतियां व्यर्थ नहीं है।(3.2.15)
अत: अद्वैत मे उपाधि युक्त ब्रह्म साकार होता है। शंकर ब्रह्म को उपाधि से साकार मानते है। गीता मे तो भगवान स्वयम् को अजन्मा बता कर जन्म लेने वाला कहते है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।
शंकर भाष्य - अजोऽपि जन्मरहितोऽपि सन् तथा अव्ययात्मा अक्षीणज्ञानशक्तिस्वभावोऽपि सन् तथा भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानाम् ईश्वरः ईशनशीलोऽपि सन् प्रकृतिं स्वां मम वैष्णवीं मायां त्रिगुणात्मिकाम् यस्या वशे सर्वं जगत् वर्तते यया मोहितं सत् स्वमात्मानं वासुदेवं न जानाति तां प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय वशीकृत्य संभवामि देहवानिव भवामि जात इव आत्ममायया आत्मनः मायया न परमार्थतो लोकवत।
इसमे शंकरचार्य स्पष्ट लिख रहे है कि अपनी इसी माया को अधीन कर, मैं जन्म लेता हुआ प्रतीत होता हूँ, देह धारण करता हूँ, जैसे मैं वास्तव में जन्मा हूँ। परंतु यह सब मेरी आत्ममाया (मेरी माया) के कारण होता है, न कि परमार्थतः (वास्तविकता में)। जैसे संसार में होता है, उसी प्रकार मेरा यह प्राकट्य भी होता है।
अद्वैत अनुसार इस प्रकार ब्रह्म साकार होता है रामानुजाचार्य ने तो साक्षात ब्रह्म का ही सकारत्व माना है क्योकि वो माया जैसी वस्तु नही मानते।
समाजी कहता है की देखो आदिशंकर ने ब्रह्म को निराकार बोला है। अब मुझे समझ ही नही आता इसमे नई बात क्या है सभी अद्वैत आचार्य ब्रह्म को निराकार ही मानते है। अद्वैत मे ब्रह्म तो अकर्ता है। साकार होना दूर की बात है। निरोपाधिक ब्रह्म निराकार ही है और वह कभी साकार नही होता है। अद्वैत मे माया उपाधि से ब्रह्म का साकार रूप कल्पित है, इससे ब्रह्म साकार नही होता। जैसे आकाश मे सूर्य एक ही होता है परंतु अनेक जल भरे हुए घड़े मे अनेक सूर्य दिखाई देता है। वैसे ही अकर्ता ब्रह्म माया उपाधि से जगत आदि प्रपंच को रचता है।
समाजी आधा भाष्य पढ़ते है इसलिए मूर्खता कर बैठते है।
आदि शंकर से प्रश्न पूछा - परन्तु साकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली और निराकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली श्रुतियों के रहते निराकार ब्रह्मका अवधारण किस प्रकार किया जाता है, साकार ब्रह्म का अवधारण क्यों नहीं किया जाता ? ऐसी शंका होनेपर सूत्रकार उत्तर सूत्र पढ़ते हैं-
सिद्धांत पक्ष - रूपादि आकार से रहित ही ब्रह्म है, ऐसा अवधारण करना चाहिए, ब्रह्म रूपादियुक्त है, ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए। किससे ? इससे कि श्रुति- वाक्यों में निराकार ब्रह्म ही प्रधानरूप से वर्णित है।(३.२.१३/३.२.१४)
आदिशंकर द्वारा ऐसा कहने पर पूर्व पक्ष मे फिर से प्रश्न उठाया
प्रश्न - यदि ब्रह्म निराकार है फिर तो साकार ब्रह्म को सिद्ध करने वाली श्रुति व्यर्थ हो जायेगी। इस पर कहते है -
सिद्धांत पक्ष - सूर्य आदि का प्रकाश बास आदि वक्र, ऋजु उपाधि को प्राप्त कर वक्राकार-सा और ऋजु आकार-सा होता है, इसी प्रकार ब्रह्म भी तत्तत् पृथिवी आदि उपाधि प्राप्त करके पृथ्व्यादि आकार हो जाता है, अतः उपासना प्रकरण में पठित श्रुतियां उसी सोपाधिक ब्रह्म को विषय करती हैं, इसलिए वे श्रुतियां व्यर्थ नहीं है।(3.2.15)
अत: अद्वैत मे उपाधि युक्त ब्रह्म साकार होता है। शंकर ब्रह्म को उपाधि से साकार मानते है। गीता मे तो भगवान स्वयम् को अजन्मा बता कर जन्म लेने वाला कहते है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।
शंकर भाष्य - अजोऽपि जन्मरहितोऽपि सन् तथा अव्ययात्मा अक्षीणज्ञानशक्तिस्वभावोऽपि सन् तथा भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानाम् ईश्वरः ईशनशीलोऽपि सन् प्रकृतिं स्वां मम वैष्णवीं मायां त्रिगुणात्मिकाम् यस्या वशे सर्वं जगत् वर्तते यया मोहितं सत् स्वमात्मानं वासुदेवं न जानाति तां प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय वशीकृत्य संभवामि देहवानिव भवामि जात इव आत्ममायया आत्मनः मायया न परमार्थतो लोकवत।
इसमे शंकरचार्य स्पष्ट लिख रहे है कि अपनी इसी माया को अधीन कर, मैं जन्म लेता हुआ प्रतीत होता हूँ, देह धारण करता हूँ, जैसे मैं वास्तव में जन्मा हूँ। परंतु यह सब मेरी आत्ममाया (मेरी माया) के कारण होता है, न कि परमार्थतः (वास्तविकता में)। जैसे संसार में होता है, उसी प्रकार मेरा यह प्राकट्य भी होता है।
अद्वैत अनुसार इस प्रकार ब्रह्म साकार होता है रामानुजाचार्य ने तो साक्षात ब्रह्म का ही सकारत्व माना है क्योकि वो माया जैसी वस्तु नही मानते।