गुरु का अस्तित्व शिष्यों के बिना अधूरा होता है, क्योंकि गुरु तभी सिखा सकता है जब शिष्य सीखने के लिए तैयार हो। हर गुरु की पहचान उसके शिष्यों के साथ ही होती है, जैसे श्री कृष्ण और अर्जुन, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद, अष्टावक्र और राजा जनक।

मुझे सौभाग्य मिला है कि मुझे आप सभी के साथ जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी भावना के साथ, आप सभी को "गुरु पूर्णिमा" की हार्दिक शुभकामनाएं
प्रणिपात 🙏🙏

मुझे बुद्ध के बारे में जानना है,
उनके गुरु कौन थे? उनकी यात्रा आदि के बारे में बतायें।

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इसको थोड़ा समझना होगा। तुम वह बिलकुल नहीं जानना चाहते जो किसी पुस्तक अथवा इंटरनेट पर उपलब्ध है। तुम बुद्ध को समझना चाहते हो, तुम समझना चाहते हो बुद्ध को किस गुरु ने बुद्ध बनाया या कौन सी यात्रा की जिससे वह बुद्ध बन गये।

बुद्ध का अर्थ होता है जो जान गया, जिसे बोध हो गया, जो जाग गया, जो आत्मज्ञान कर लिया और भी कई अर्थ निकलते हैं। लेकिन जानना, जागना अथवा आत्मज्ञान करना है, तो संभव है ऐसा कई और लोग कर सकते हैं। इसका मतलब बुद्ध एक नहीं कई हो सकते हैं।
हाँ बिलकुल!

फिर यह भी प्रश्न उठता है
- क्या जान लिया?
- सो रहा था क्या जो जाग गया ?
- और अब ये आत्मज्ञान क्या है ?

तो सबसे पहले यह समझो, हर एक इन्सान मोह, लोभ आदि के अज्ञानता में लिप्त है जिसे माया कह लो। जैसे ही इस माया द्वारा उत्पन्न हुए सच और झूठ में अन्तर समझ जाओगे तो जान जाओगे, जाग जाओगे, अपने मूल स्वरूप को समझ सकोगे। जो ऐसा कर पाते हैं उन्हें जाना हुआ कहते हैं, जागा हुआ कहते हैं अर्थात् बुद्ध कहते हैं।

संभवतः तुम यहां जिस बुद्ध के बारे में प्रश्न करना चाहते हो वो हैं सिद्दार्थ गौतम।

सिद्दार्थ एक राजकुमार थे, जिनके बारे में असित मुनि ने भविष्यवाणी की यह आगे चल के संन्यासी बनेंगे। सन्यासी न बन जाए इसके लिए, उनके पिता ने उनके लिए सारी व्यवस्था राजमहल के अंदर ही कर दी शिक्षाऐं, मनोरंजन आदि। कहते हैं बूढ़े और बीमार लोगों को राजमहल से बाहर रखा गया। फूल मुरझाने से पहले तोड़ लिए जाते ताकि सिद्धार्थ को कोई ऐसी चीज न दिखे जिससे वैराग्य उत्पन्न हो।

इस तरह सिद्दार्थ ने किसी तरह का कष्ट ही नहीं देखा, उनकी शादी के बाद जब पिता को भरोसा हुआ अब पुत्र संन्यास न लेगा, तब जाकर राज्य घूमने की अनुमति दी।

घूमने के दौरान जब उन्होंने एक ही दिन में पहली बार एक बूढ़े को, एक बीमार को, एक मृत शरीर को और एक साधु को देखा। तो उनके अंदर दुःख की वेदना इतनी हुई कि उन्होंने संन्यास लिया और ज्ञान प्राप्ति के लिए निकले।

अब यहां यह भी समझना है जब सिद्धार्थ घर से निकल रहे तब वह एक साधारण राजकुमार हैं। इस दौरान संभव है शुरुआत में अलग-अलग गुरुओं के आश्रम में गए होंगे और वहां सीखा होगा।

यह 2500 साल पुराना इतिहास है, इतिहास लिखने में शब्दों के चयन, भाषा के बदलाव, समय का बड़ा अन्तराल बहुत कुछ जोड़ या घटा देता है शब्द बदल जाते हैं तो अलग से अर्थ दिखने लगते हैं।

इसलिए इतिहास में दिखता है -
सिद्धार्थ के जो पहले गुरु हुए उनका नाम कौंडिण्य ऋषि था जो पहले उनके गुरु, फिर गुरु भाई बाद में बुद्ध के शिष्य भी हुए।
उनके दो गुरु "उदाका रामपुत्त" और "अनार कलाम" हुए।
कहीं कहीं उनके गुरु में नाम सब्बमित्त भी दिखता है।

लेकिन यह भी स्पष्ट दिखता है बुद्ध के उपदेश से आखिरी में उन्होंने मुक्ति के लिए एक अलग ही मार्ग "अष्टांगिक मार्ग" की खोज की। इस तरह उन्होंने अपने आपको ही अपना गुरु बना लिया। उनके एक उपदेश "अप्प दीपो भव" से भी स्पष्ट पता चलता है।

अब इसमें कोई कहे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के कोई गुरु नहीं थे या कोई कहे गुरु थे ही। दोनों सच या झूठ हो सकता है।

इसे ज़रा ढंग से समझना, बुद्ध जैसी घटना आम बात तो है नहीं। तो कोई इन्सान जो बुद्ध हो गया हो, भगवान ही हो गए फिर उनके गुरु कैसे हो सकते हैं। भगवान के गुरु कैसे हो सकता है कोई ?

दूसरा तर्क कहता है,
शुरुआत तो कहीं न कहीं से की ही गई होगी। तर्क शक्ति तो यही समर्थन देगी न। तो क्या दूसरा पक्ष बे बुनियाद है ?
नहीं, दूसरा पक्ष भी गलत नहीं है।

कैसे कहा जाये उन बातों को जो शब्दों से परे हैं,
तब ऐसी उपमाएँ दी जाती है, तब ऐसे शब्दों के चयन किए जाते हैं।
जो भगवान हैं उनको कोई कैसे सिखा सकता है।
नहीं ही सिखाना चाहिए।
उन्हें सब कुछ स्वयं सीख ही लेना चाहिए।

एक और उदाहरण से समझो,
जैसे रावण के १० सिर, अब अनुमान लगा के देखो अगर किसी के पास दस सिर होते हैं वह सम्भालेगा कैसे ? एक शरीर के अनुपात में १० सिर लगा लोगे तो चलना, उठना बैठना सब मुश्किल हो जाए। तर्क तो यही कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता।

परंतु ऐसा होना चाहिए, जो इन्सान इतना बलशाली है जो इन्द्र को भी हरा दे वह साधारण नहीं होना चाहिए उसके १० सिर होने ही चाहिए, उसके २० हाथ होने ही चाहिए।
यहाँ दोनों बातें रावण के शक्तिशाली होने की बस व्याख्या करने के लिए प्रयोग में लाए गए होंगे।

यहाँ सिर्फ़ यह समझाया जा रहा है, जो रावण जैसा बलशाली है वह कैसा है?
जो बुद्ध हो जाते हैं वो कैसे होते हैं ?

यह सहज दृष्टिकोण तभी संभव हो सकेगा जब निष्पक्ष रूप से किसी भी विषय को देखने का अभ्यास करते रहोगे।
एक और बात स्पष्ट रूप से समझना, बुद्ध महत्वपूर्ण हैं बुद्ध की कहानियाँ नहीं। कहानी में जोड़ घटाव हो सकता है बुद्ध में नहीं, राम में नहीं। तो कहानी जितनी बुद्धि के स्तर तक आती है उतनी ही रखो। और बुद्ध के जैसा, राम के जैसा, कृष्ण के जैसा, अर्जुन के जैसा बनने का अभ्यास करो।

तुम बुद्ध या किसी को भी समझना ही इसलिए चाहते हो कि उनके निशानों पर चल सको,
बस यात्रा शुरू करो। कुछ कदम चलोगे, आगे स्वयं स्पष्ट दिखना शुरू हो जाएगा। हर जगह गुरु मिलते ही जाएँगे, चाहे कोई दूसरे गुरु हों अथवा तुम स्वयं हो। एक छोटे से टॉर्च की रोशनी भले ही ५ किमी दूर ना पहुँचें लेकिन उसी टॉर्च के सहारे ५ क्या १५ किमी भी अंधेरे में चले जा सकते हो।

यह भी समझना -
बुद्ध और महावीर ने घर छोड़कर ज्ञान प्राप्त किया।
गुरुनानक संसार में।
रामकृष्ण परमहंस काली भक्ति में।
कबीर फ़क़ीरी में।
विष्णु विलास में निवास करते हैं।
शिव श्मशान में।

संभावना सब जगह १००% है

बस ध्यान का अभ्यास करते रहो
ध्यान क्या है?
कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।
प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये।

बहुत समय से आपके आर्टिकल को पढ़ता आ रहा हूँ, पहली बार प्रश्न कर रहा हूँ। कृपया इसका उत्तर दें।

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ध्यान क्या है?

इसको साधारण शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं।
ध्यान एक प्रक्रिया नहीं है, अवस्था है। उस अवस्था तक पहुँचने की जो क्रिया है, जो अभ्यास है, उसके लिये अलग से शब्द का प्रयोग ना करते हुए ध्यान ही शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है।

महर्षि पतंजलि ने इसे धारणा कहा है।
"अपने चित्त को किसी भी एक स्थान पर ( शरीर के अंदर या बाहर ) केन्द्रित करना धारणा कहलाती है और जब यह स्थिति गहरी हो जाती है तो उसे ही ध्यान की अवस्था कहते हैं।"

इसे थोड़ा सा और आसान करके समझने की कोशिश करते हैं,
जब कोई साधक किसी भी वस्तु विशेष पर अपने ज्ञानेंद्रिय को लंबे समय के स्थिर कर लेता है उसे धारणा कहते हैं दूसरे शब्दों में एकाग्रता कह लो।

जब एक ऐसी अवस्था आ जाती है, साधक वस्तु विशेष के एकात्म अनुभव करने लगता है वही है ध्यान की स्थिति।

तो जो हम सब ध्यान के लिए अभ्यास करते हैं वास्तव में एकाग्रता के लिए अभ्यास करते हैं, जैसे जैसे एकाग्रता अर्थात् धारणा गहरी होगी ध्यान की अवस्था तक पहुँचने लगोगे।

//// कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।///

वास्तविक सच, परम ज्ञान - ऐसा ज्ञान जिसे जानने के बाद के कुछ जानने को ना रह जाए। उस अवस्था तक पहुँचने के लिये ध्यान के अभ्यास की निरंतरता चाहिए।

जब धारणा गहरी होती है, तो ध्यान की अवस्था होती है, जब ध्यान गहरा हो जाता है तब समाधि की अवस्था कहलाती है।

या इसे ऐसे कह लो
पड़ाव एक को धारणा,
पड़ाव दो को ध्यान,
और पड़ाव तीन को समाधि कहते हैं।

तो जब इंसान समाधि की स्थिति में पहुँचता है तब उसे वास्तविक ज्ञान होता है।

ऐसा क्यों होता है, इसको ऐसे समझते हैं ।
हमारा मन है जो, उसका भटकना स्वभाव है और जब तक मन भटकता रहता है हमें दुःख और सुख का अनुभव होते रहता है। दुःख और सुख भी शाश्वत नहीं हो सकता है क्योकि वह मनोजनित है और मन के भटकते ही बदल जायेगा। है ना।
तो जब ध्यान अभ्यास के लिये जब अपने मन को नियंत्रित करते जाते हो, उसका भटकाव कम होने लगता है, समाधि की स्थिति तक पहुँचते तक मन स्थिर हो जाता है।

तब जो बच जाता है वह शाश्वत होता है क्योंकि उसे मन ने नहीं उत्पन्न किया है, उसी को कैवल्य ज्ञान, परम ज्ञान या सच्चा ज्ञान कहते हैं।

उस स्थिति के बाद में सारे प्रश्न छूट जाते हैं।

इस बात को भी समझना, उस स्थिति तक पहुँचने में समय लगता है। क्योंकि मन को पूर्णतः नियंत्रित कर लेना बहुत आसान भी नहीं है।

कितना समय लगता है ? यह अभ्यास पर निर्भर करता है।
होने को यह घटना एक क्षण में हो जाये, नहीं तो जन्मों लग जाये। लेकिन पहुँच पाना संभव है और यात्रा एक कदम से ही शुरू होती है।

जब अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा,
इस चंचल मन को कैसे वश में किया जा सकेगा यह तो हवा को नियंत्रित करने से भी कठिन है।
तब श्री कृष्ण ने उत्तर में कहा,
चंचल तो है लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।

/// प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये ///

देखो योग व ध्यान भारत के प्राचीन समय से समाज का हिस्सा रहा है,
तो अभी जो वर्तमान में जो पद्धतियाँ दिखायी पड़ती है अलग-अलग दर्शनों से आती है।
कहीं साकार ध्यान की व्यवस्था है कहीं निराकार, कहीं मिश्रित।

परंतु लक्ष्य किसी का भी अलग नहीं है।
इसलिए ऐसा नहीं है कोई ध्यान कम प्रमाणिक है और कोई ज़्यादा।
सभी रास्ते सही है और शुरुआत में सभी रास्ते आसान या कठिन दिख सकते हैं या सही या ग़लत जान पड़ सकते हैं। जैसे-जैसे रास्ते पर आगे बढ़ोगे पूरी तरह अभ्यास और निष्ठा निर्भर करेगा कि आगे का मार्ग कैसा रहने वाला है। हाँ कठिनियाँ आएगी, हर रास्ते में आएगी, गुरुओं का सपोर्ट भी मिलेगा, हर रास्ते में ऐसा ही होगा।

इसलिए अगर किसी भी गुरु, या किसी भी पद्धति से ध्यान का अभ्यास करते हो तो उसे जारी रखो उसमें निरंतरता लाओ। सिर्फ़ भटकाव मदद नहीं करेगा।

हाँ, एक यह बात याद रखना,
ध्यान व योग कोई चमत्कार नहीं है, अगर कोई चमत्कार की तरह परोसे तो तुरंत भाग खड़े होना।

/// पहचानोगे कैसे आप सही दिशा में जा रहे हैं ///

कुछ मंत्र दे रहा हूँ इसको भूलना नहीं

तुम्हारे अंदर सकारात्मक विचारों उदय होने लगेगा।
तुम अपने ग़ुस्से आदि अधोगामी गुणों को जल्दी नियंत्रण में करने लगोगे ।
तुम्हारे अंदर दया और करुणा उत्पन्न होने लगेगी।
तुम्हारे अंदर सहनशीलता बढ़ने लगेगी ।
तुम्हारे अन्दर क्षमाशीलता भी बढ़ने लगेगी।

सब कुछ एक ही दिन में बदल जाएगा ऐसा संभव नहीं है, लेकिन कुछ अंश का परिवर्तन स्वयं अनुभव करने लगोगे।

कुछ ध्यान की विधियाँ अभ्यास के लिये जल्दी ही वेबसाईट पर लिखकर उपलब्ध कराऊँगा।

प्रश्न - जिज्ञासा विराट रूप धारण करती जा रही है. कुछ भी अच्छा नहीं लगता। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें
उत्तर - जिज्ञासा बहुत ही अच्छी चीज है, यही तुम्हें हर वक्त बेहतर बनाएगा।
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प्रश्न - मेरे अन्दर का अहंकार खत्म नहीं हो रहा
उत्तर - पूर्ण रूप से अहंकार तभी खत्म होगा जब ज्ञान प्राप्त होगा या कहो अहंकार का खत्म हो जाना ही ज्ञान प्राप्त करने की अवस्था है। अभ्यास करते रहना ही एक मात्र उपाय है
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प्रश्न - वेद शास्त्र सिर्फ प्रश्नों को पैदा करके छोड़ देते हैं।
उत्तर - कुछ हद तक तुम्हारी बात सही है, लेकिन तुम्हारे लिए यह सच नहीं है क्योंकि तुमने वेद - शास्त्र का गहन अध्ययन नहीं किया। इसलिए ऐसा तुम नहीं कह सकते। अगर यह सच है भी तो तुम्हारा सच नहीं।
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प्रश्न - किसी से चर्चा करूँ तो वो मुझे पथभ्रष्ट समझता है और कहता है कि तुम हिन्दू धर्म का अपमान कर रहे हो।
उत्तर - बहुत सी भ्रांतियां हैं, बहुत कुछ मिक्स हो गया है। इसलिए कुछ लोग कट्टर पक्षपाती और कुछ कट्टर विरोधी हो जाते हैं। तुम्हें दोनों से अलग रहने का अभ्यास करना चाहिए।
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प्रश्न - मुझे महात्मा बुद्ध की कहानियों में भी संशय मालूम होता है।
उत्तर - उनकी कहानियों में भी संशय होना स्वाभाविक है,
जो इतिहास होता है उसे बोलते - कहते समय अतिशयोक्ति शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं। इसलिए 100% कहानी पर विश्वास करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। बुद्ध की कहानी में महत्वपूर्ण बुद्ध हैं उनकी कहानियां नहीं, इसे समझना होगा।
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प्रश्न - या कहानिया झूठी रही या कहने वाला, मुझे मालूम है कि इनका उत्तर मुझे स्वम खोजना है पर कैसे ?
उत्तर - किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं खोजना, स्वयं को खोजो। जब तुम्हें तुम मिलोगे फिर किसी कहानी, किसी उदाहरण की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
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प्रश्न - मुझे अपने शास्त्रों से बड़ी लंबी शिकायत है
उत्तर - संभव है, बहुत सारी बातें हिन्दू शास्त्र हों अथवा किसी भी धर्म के हों उन्हें समझना होगा। उसमें कुछ बातें उपमाओं के रूप में लिखा गया है कहानी को सहज और रोचक करके समझाने के लिए।

दस सिर, 20 हाथ का होना, यह एक उपमा होना चाहिए। नहीं तो सोचो तुम्हारे अगर 4-6 हाथ और जोड़ दिया जाए तो क्या तुम कोई भी काम कर सकोगे ?

लेकिन कहने के लिए कहा जाता है, वह ऐसे काम कर रहा है जैसे उसके 6 हाथ लगे हों।
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प्रश्न - मैं ये भी नहीं कहता कि शास्त्र सब गलत है पर उनमें बड़ा झंझट मालूम होता है। या मैं उन्हें सही अर्थ में समझ नहीं पाता ये भी हो सकता है।
उत्तर - आज जिस तरह हम मोबाइल में चैट करते समय शब्दों का प्रयोग करते हैं आधे अधूरे। आज से 100 साल बाद कुछ शब्दों, वाक्यों आदि का अर्थ निकालना असंभव हो जायेगा या फिर आम बात नहीं रह जायेगी। उसी तरह समय और स्थिति के अनुसार शास्त्रों को लिखने के लिये शब्दों के प्रयोग किये जाते रहे हैं। इसलिए कभी-कभी अप्रासंगिक से मालूम पड़ते हैं।
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अगर कोई प्रश्न है, तो अवश्य लिखें ...
युधिष्ठिर को धर्मराज क्यू कहा गया... जो कृत किए उनका क्या?
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इसे समझने के लिए थोड़ा हिन्दू धर्म और वेद व्यास को समझते हैं क्योंकि तुम्हारा यह प्रश्न महाभारत से आता है।

हिन्दू किसी संप्रदाय विशेष का नाम नहीं हो सकता इसमें अलग-अलग मत, पंथ, विचार आदि का मिश्रण स्पष्ट दिखता है। हाँ यह एक भौगोलिक स्थिति रही होगी जहां हर मत के लोग रहते होंगे और सबको मिलाकर हिंदू की संज्ञा दे दी गई होगी।
यह कब हुआ होगा यह एक अलग विषय है।

परन्तु विषय को आसानी से समझने के लिए, इस भारतीय धर्म को, हिन्दू धर्म से ही संबोधित करते हैं।

हिंदू ग्रंथों को विषय और उद्देश्य के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया।
कुछ श्रुति कहलाये, कुछ स्मृति, कुछ इतिहास आदि आदि।

और महाभारत को इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है।
अब आगे समझते हैं
क्योंकि हिन्दू धर्म बहुत ही पुराना धर्म है और शुरुआत में लिखने की परंपरा नहीं रही होगी। या शायद लिपि का विकास न हुआ हो तब से यह धर्म मानव समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का काम करता रहा हो।

उस समय सारा ज्ञान श्रुति के रूप में यानि गुरु शिष्य परंपरा के साथ अगली पीढ़ी तक दी जाती थी।

कृष्ण द्वैपायन जिन्हें वेद व्यास के नाम से जानते हैं। उन्होंने उपस्थित ज्ञान को वर्गीकृत करके ४ वेदों में लिखित रूप से प्रस्तुत किया।

वेद व्यास ने ही महाभारत लिखा और “श्रीमद भगवद्गीता” महाभारत का ही हिस्सा है।

इसे इसलिए समझा, क्योंकि समझना होगा लेखक कौन हैं और किस तरह रचनाएँ कर सकने के योग्य हैं।

अब जिस ग्रंथ में गीता जैसा ज्ञान हो और रचयिता स्वयं वेद व्यास हो, उसे सिर्फ़ इतिहास नहीं कह सकते।

अगर मेरी मानो तो, महाभारत एक इतिहास तो है लेकिन किसी दर्शन से कम नहीं है।

अब आते हैं युधिष्ठिर पर

पहले ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समझते हैं -

जब महाराज पाण्डु अपनी रानी कुंती और माद्री के साथ जंगल में थे, तो उन्हें एक ऋषि से शाप मिला - स्त्री संसर्ग करते ही उनकी मृत्यु हो जायेगी।

उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, तो राजा के रूप में चिंतित होना स्वाभाविक था। ऐसी विषम स्थिति में उन्हें कुंती को मिले वरदान की जानकारी मिली।

दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुंती किसी भी देव, गंधर्व आदि का आह्वान करके उनसे पुत्र प्राप्ति कर सकती थी।

अब क्योंकि पाण्डु सत्यनिष्ठ और कर्तव्यपरायण व्यक्ति थे इसलिए उन्होंने ईच्छा रखी कि सबसे पहले धर्म के देवता को बुलाया जाये।
जिन्हें - धर्म या यम कहते हैं।
धर्म से जो पुत्र प्राप्त हुआ उन्हीं का नाम युधिष्ठिर है।

यह कोई साधारण पुत्र नहीं हैं जिनमें बाद में गुण विकसित किए जाने हैं, यह उद्देश्य को निश्चित रखते हुए प्राप्त किए गये हैं, धर्म के पुत्र हैं। है ना?

यहीं से नींव पड़ी, युद्धष्ठिर के धर्मराज नाम जुड़ने का।

एक कहानी आती है,

जहां उनके गुरु द्रोणाचार्य जब “सच बोलने का पाठ” पढ़ाते हैं तो उस दिन से उन्होंने सत्य बोलने का प्रण कर लिया।
हमें भी तो सिखाया जाता है, सच बोलो, अहिंसा करो, दया करो, दान करो … तो हम कितना प्रण ले पाते हैं और उनके भाइयों ने कितना लिया। विषम परिस्थिति में अक्सर लोग सत्य का साथ छोड़ देते हैं परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा।

एक और प्रसंग आता है,
जहां युद्ध के बाद वेश बदल कर शत्रुओं के घायलों की भी मदद करते हैं।

एक और प्रसंग आता है,
युद्ध के दौरान, अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी जानकारी गुरु को दे नहीं पाते हैं।

एक और प्रसंग आता है,
जब सरोवर के पानी से उनके सारे भाई मूर्छित हो जाते हैं, तब यक्ष द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर दिये। जब बदले में एक भाई को जीवित करने की बारी आयी तो माद्री पुत्र नकुल का चयन किया।

जिस तरह के युद्ध के हालात थे ऐसे में, उन्हें शक्तिशाली अर्जुन या भीम को जीवित करना चाहिए था। वैसे भी नकुल सौतला भाई था। लेकिन उन्होंने दोनों माँओं एक एक पुत्र जीवित हों ऐसा सोचा।

वास्तव में, पूरे महाभारत में युधिष्ठिर को एक धर्म के साथ पाओगे इसलिए उन्हें धर्मराज की संज्ञा दी गई।

अब प्रश्न यह है कि,
जब धर्म पारायण हैं फिर उन्होंने जुआ क्यों खेला, भाइयों को दाव पर लगा दिया, राज्य गवाँ दिये, पत्नी तक को जुए में हार गये।
इसको ऐसे समझो,
यह उस समय के समाज को इंगित कर रहा है, हर समय का समाज एक जैसा नहीं रहता है और समाज के हिसाब से ही अलग-अलग धर्म तय किए जाते हैं।

धर्म के कई अर्थ होते हैं, उसमें एक अर्थ नियम भी है।

एक और बात को याद रखते हुए चलना - किसी भी पुस्तक, धर्म, ज्ञान आदि की ज़रूरत व्यक्तिगत और सामाजिक विकास एवं संचालन के लिए होती है।

उस समय एक राजा को जब कोई युद्ध के लिए या द्यूत के लिए, जुआ के लिए कोई ललकार दे वह उसे ना नहीं कर सकता अन्यथा वह हारा हुआ समझा जाएगा।
एक राजा का धर्म है वह लड़ते हुए मर जाये, परंतु अपनी प्रजा को जीते जी किसी के सामने ना झुकायें।

जरा सोच कर देखो, कितने विवेक वाले इंसान हैं युधिष्ठिर, भाईयों से कितना प्रेम है उन्हें, पत्नी से कितना प्रेम है। परन्तु एक जुए में हारने के लिए बैठे हैं।

क्रिकेट का खेल तो है नहीं जो मनोरंजन के लिए खेल रहे हैं, जीत-हार पर एक ट्रॉफ़ी की लेन-देन हो जाएगी और खेल का आनन्द के लिए खेल रहे होते तो किसी और के साथ खेल लेते। लेकिन यहाँ स्थिति अलग है। वह एक राजा हैं सब खोते जा रहे हैं, लेकिन उस समय के समाज के धर्म को निभा रहे हैं।

उस समय के समाज में नियम रहा होगा, आज के दृष्टिकोण से बड़ा ही अन्याय पूर्ण दिखता है। आज के समाज में भी ऐसी हज़ारों चीजें हैं जो उचित नहीं जान पड़ती लेकिन क़ानून है, नियम है, धर्म है।

दूसरा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें अगर,

पांडव के जितने भी गुण है सब उर्ध्वगामी गुणों के द्योतक हैं और कौरव अधोगामी गुणों के। इस तरह महाभारत एक यह भी संदेश देता है, अगर ५ पांडव के गुणों को अगर धारण करके रखा जाये तो १०० कौरवों पर भी जीत संभव हो जाती है।

उसी गुण में से एक गुण है, जीवन युद्ध में स्थिर रहना - युधिष्ठिर अर्थात् धर्म में स्थिर रहना - धर्मराज।

🙏एक साधक के प्रश्न “स्वर्ग और नर्क” के बारे में समझाने के लिए एक वीडियो बनाया था।
https://youtu.be/6klwKd9NjQA
माइग्रेन

माइग्रेन का दर्द आधे या पूरे सिर में महसूस हो सकता है। दर्द के दौरान या पहले जी मिचलाना, उल्टी जैसा महसूस होना, तेज रोशनी या तेज आवाज से परेशान महसूस करना ऐसा महसूस हो सकता है।

माइग्रेन के दर्द से पहले पाचन में गड़बड़ी, गर्दन में अकड़, मायूसी आदि भी महसूस कर सकते हैं।

ऐसे अभ्यास जो ब्रेन में रक्त संचार को सुदृढ़ करें और मन को शान्त रखे, पेट को स्वस्थ रखे, माइग्रेन के लिए बहुत लाभकारी है।

कुछ आसन जो माइग्रेन में विशेष लाभकारी है। लेकिन किसी भी आसन अभ्यास से पहले 5 मिनट का शारीरिक व्यायाम अवश्य कर लें।

जैसे - जॉगिंग, रस्सी कूदना आदि

कारण बस इतना है, शरीर व्यायाम के बाद आसन के लिए तैयार रहता है अन्यथा शरीर के किसी अंग के टूटने अथवा चोटिल होने का डर रहता है।

हर एक आसन में 5 सेकंड से शुरू करके 1 मिनट रुकने का अभ्यास करना है।
और हर आसन को तीन - तीन बार दोहराना है।

आसन
शशकासन
पाद हस्तासन
मार्जार आसन
पर्वतासन
सर्वांगासन
मत्स्यासन
शवासन

प्राणायाम आसन के बाद करें तो ज्यादा लाभ देता है, हर प्राणायाम को 30 सेकंड्स से शुरू करके 3 मिनट तक कम से कम करें। शुरुआत में 3 मिनट से ज्यादा प्राणायाम का अभ्यास न करें।

प्राणायाम
कपालभाति
अनुलोम विलोम
भ्रामरी
ॐ उच्चारण

ध्यान 5 मिनट से शुरू करके अपनी क्षमता और सुविधा अनुसार समय अन्तराल बढ़ाते रहें।

मेडिटेशन / योग निद्रा
2025/07/05 06:32:19
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