लफ़्ज़ों में कैसे तुम्हें बयां करूं,
कैसे तुम्हें जी भरकर प्यार करूं !
नज़रों में बसे हो इस क़दर,
हर वफ़ा पर तेरी एतबार करूं !
जानशीं, जानेमन कहूं,
मेरे मेहबूब तुम्हें मैं क्या नाम दुं !
दिल में आया संभालकर तेरा प्यार रखूं,
फ़िर तनहाईयों में जी भरकर उन्हें याद करूं !
मोहब्बत का गुल खिलाकर मेरे मन में,
चोर तुम मेरे जज्बात के बन गए !
ऐ गुनहगार मेरे दिल के,
तुझे अपने दिल में उम्रक़ैद की सजा दुं !
तेरे तबस्सुम के रंग का राज़ तेरा एतबार है,
तेरे श्रृंगार का राज़ तेरा दीदार है !
तेरी बेपनाह मोहब्बत पर लुटाकर खुद को,
तेरी बाहों का हकदार बस 'अहमद' का प्यार है !
@Hindi_Shayaris
कैसे तुम्हें जी भरकर प्यार करूं !
नज़रों में बसे हो इस क़दर,
हर वफ़ा पर तेरी एतबार करूं !
जानशीं, जानेमन कहूं,
मेरे मेहबूब तुम्हें मैं क्या नाम दुं !
दिल में आया संभालकर तेरा प्यार रखूं,
फ़िर तनहाईयों में जी भरकर उन्हें याद करूं !
मोहब्बत का गुल खिलाकर मेरे मन में,
चोर तुम मेरे जज्बात के बन गए !
ऐ गुनहगार मेरे दिल के,
तुझे अपने दिल में उम्रक़ैद की सजा दुं !
तेरे तबस्सुम के रंग का राज़ तेरा एतबार है,
तेरे श्रृंगार का राज़ तेरा दीदार है !
तेरी बेपनाह मोहब्बत पर लुटाकर खुद को,
तेरी बाहों का हकदार बस 'अहमद' का प्यार है !
@Hindi_Shayaris
आहटें तो है मेरी, पर कहीं भी मैं नहीं,
मुझे मुझसे मिला दे ज़िंदगी, वरना तेरी ख़ैर नहीं ।
@Hindi_Shayaris
मुझे मुझसे मिला दे ज़िंदगी, वरना तेरी ख़ैर नहीं ।
@Hindi_Shayaris
अक्स जमीं पर रखकर अपनी,
ही कमियां टाल देती हूं ।
हँसी तलाशने ख़ुद में,
ख़ुद को शीशे में डाल देती हूं ।
@Hindi_Shayaris
ही कमियां टाल देती हूं ।
हँसी तलाशने ख़ुद में,
ख़ुद को शीशे में डाल देती हूं ।
@Hindi_Shayaris
इतना रोए कि अब नजर नहीं आता
कितनी दूर बसा है वो
उसका शहर क्यों नहीं आता,
ये खुशियां तो मेरी बेवफा निकली
कमबख्त ये दर्द
मुझे छोड़कर क्यों नहीं जाता?...
@Hindi_Shayaris
कितनी दूर बसा है वो
उसका शहर क्यों नहीं आता,
ये खुशियां तो मेरी बेवफा निकली
कमबख्त ये दर्द
मुझे छोड़कर क्यों नहीं जाता?...
@Hindi_Shayaris
कब्र में हूँ ख़ुद मैं और,
जीवन जीने का आधार लिखती हूँ ।
ख़ुद बैठ अंधेरे में, मैं रूठी हुई,
रोशनी को मनाने का ढंग लिखती हूँ ।
कितनी शांत कुटिया में बैठी हूँ मैं,
और महलों की दीवारों का,
व्यवहार लिखती हूँ ।
सुनो ! कि अब बहुत लिख दी है,
मैंने कहानी झूठ की, चलो अब,
सच्चाई की दास्तान लिखती हूँ ।
सांझ चढ़ रही है इस बदल में,
चलो अब मैं सिसकती हुई,
साँसों की हुंकार लिखती हूँ ।
कि छूट न जाये कही,
ये अंजुम को यूँ,
हँसता हुआ देखने वाले इसलिए,
आंखों में भर आंसू भी मैं,
हँसते की बात लिखती हूँ ।
@Hindi_shayaris
जीवन जीने का आधार लिखती हूँ ।
ख़ुद बैठ अंधेरे में, मैं रूठी हुई,
रोशनी को मनाने का ढंग लिखती हूँ ।
कितनी शांत कुटिया में बैठी हूँ मैं,
और महलों की दीवारों का,
व्यवहार लिखती हूँ ।
सुनो ! कि अब बहुत लिख दी है,
मैंने कहानी झूठ की, चलो अब,
सच्चाई की दास्तान लिखती हूँ ।
सांझ चढ़ रही है इस बदल में,
चलो अब मैं सिसकती हुई,
साँसों की हुंकार लिखती हूँ ।
कि छूट न जाये कही,
ये अंजुम को यूँ,
हँसता हुआ देखने वाले इसलिए,
आंखों में भर आंसू भी मैं,
हँसते की बात लिखती हूँ ।
@Hindi_shayaris
एक खामोशी थी हमारे बीच,
जो कभी पटी नहीं ।
मसला अना का था वो डटा रहा,
और मैं भी हटी नहीं ।
@Hindi_shayaris
जो कभी पटी नहीं ।
मसला अना का था वो डटा रहा,
और मैं भी हटी नहीं ।
@Hindi_shayaris
खूब किताबें भरी लिख लिख कर अपना समय बिताया,
पर मेरे लेखन को जब पढ़ने वाला कोई न मिल पाया ।
तब कुछ एप्प तलाशने का विचार मेरे हृदय में आया,
तब जाकर टेलीग्राम व रेख़्ता ने रास्ता दिखाया ।
@Hindi_shayaris
पर मेरे लेखन को जब पढ़ने वाला कोई न मिल पाया ।
तब कुछ एप्प तलाशने का विचार मेरे हृदय में आया,
तब जाकर टेलीग्राम व रेख़्ता ने रास्ता दिखाया ।
@Hindi_shayaris
ख़्वाब नहीं वो आने दूँगा
जिसमें तुमको जाने दूँगा
बड़े दिनों के बाद मिले हो
ऐसे कैसे जाने दूँगा
सबको प्यार मुहब्बत वाले
गली गली अफ़साने दूँगा
तुमको इतनी आसानी से
क्या लगता है जाने दूँगा
बाद तुम्हारे इस जीवन में
और न कोई आने दूँगा
मुझको छोड़ के जाने वाला
आया अगर तो ताने दूँगा
चाहे अब जो भी हो जाए
उसको अब न सताने दूँगा
@Hindi_shayaris
जिसमें तुमको जाने दूँगा
बड़े दिनों के बाद मिले हो
ऐसे कैसे जाने दूँगा
सबको प्यार मुहब्बत वाले
गली गली अफ़साने दूँगा
तुमको इतनी आसानी से
क्या लगता है जाने दूँगा
बाद तुम्हारे इस जीवन में
और न कोई आने दूँगा
मुझको छोड़ के जाने वाला
आया अगर तो ताने दूँगा
चाहे अब जो भी हो जाए
उसको अब न सताने दूँगा
@Hindi_shayaris
कोशिश यही थी कि आदत पुराने छोड़ेंगे,
हमें पता नहीं था कि यार पुराने छोड़ेंगे ।
एक नेकी का दीवार तेरे दिल पर भी बना,
हम यादों के लिबास सारे पुराने छोड़ेंगे ।
हमें पता नहीं था कि यार पुराने छोड़ेंगे ।
एक नेकी का दीवार तेरे दिल पर भी बना,
हम यादों के लिबास सारे पुराने छोड़ेंगे ।
चीर देते हैं लफ्ज़ नस्तर की तरह,
कर्ज़ उतरता ही नहीं इश्क़-ए-उधारी का ।
जानते सबकुछ है पर ख़ामोश रहते हैं,
बताएंगे कभी हुनर उनकी मक्कारी का ।
कर्ज़ उतरता ही नहीं इश्क़-ए-उधारी का ।
जानते सबकुछ है पर ख़ामोश रहते हैं,
बताएंगे कभी हुनर उनकी मक्कारी का ।
साथ जब भी छोड़ना
तो मुस्कुराकर छोड़ना ऐ दोस्तों
ताकि दुनिया ये ना समझे हम में दूरी हो गयी...
तो मुस्कुराकर छोड़ना ऐ दोस्तों
ताकि दुनिया ये ना समझे हम में दूरी हो गयी...
"चाय वाली"
मेरे गाँव में सड़क के किनारे एक छोटी-सी चाय की दुकान थी । उस दुकान को एक महिला चलाती थी । वह इस गाँव की नहीं थी इसलिए उसका इस गाँव में उस छोटी-सी झोपड़ी के अलावा और कोई ठिकाना न था । वह अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण इसी छोटी-सी दुकान से करती थी । गाँव के सभी बच्चे, बूढ़े और जवान उसकी दुकान के ग्राहक थे । गाँव में कोई और चाय की दुकान भी तो नहीं थी ।
मैं जब अपने बचपन के दिनों को याद करती हूँ तो उन यादों में उसकी चाय की सोंधी खुशबू भी शामिल होती है जो उस चायवाली के कोयले के चूल्हे पर उबलती रहती थी । जब मैं अपने दादाजी के साथ उसकी दुकान पर जाती तो काँच के जार में रखे पंजों के आकार के बड़े-बड़े बिस्किट मुझे आकर्षित करते थे । दादाजी तो चाय पीने बैठ जाते और मैं अपने सभी भाई-बहनों के लिए गिनकर बिस्किट लेती और भाग आती ।
हालाँकि गाँव के अधिकतर लोग चाय नहीं पीते थे लेकिन मेरे दादाजी उसके नियमित ग्राहक थे । एक दिन मैंने दादाजी से पूछ ही लिया- "दादाजी ! अपने घर में तो रोज़ चाय बनती है, तो फिर आप चाय वाली की दुकान पर चाय पीने क्यों जाते हैं ?"
पहले तो दादाजी ने मुझे बहलाते हुए कह दिया- " तुम्हारे लिए बिस्किट जो लाना होता है ।"
लेकिन उनके इस जवाब से मैं कहाँ संतुष्ट होनेवाली थी। फिर उन्होंने मुझे समझाया कि उसकी दुकान पर चाय पीने के कई उद्देश्य हैं ।
दादाजी ने कहा- " सुबह जब मैं टहलने के बाद चाय पीने जाता हूँ तो मेरे साथ और भी कई लोग होते हैं और सभी साथ में चाय भी पीते हैं । इससे मेरा सबसे मिलना-जुलना भी हो जाता है और साथ में उस गरीब की चाय ज़्यादा बिकती है । फिर शाम के समय भी सभी अपने-अपने काम से लौटते हैं तो चाय के साथ गाँव की समस्याओं पर चर्चा भी हो जाती है ।"
"अच्छा ! तो आप चायवाली की सहायता के लिए चाय पीते हैं !"अब मूल उद्देश्य मेरी समझ में आ चुका था ।
"बिल्कुल सही समझा तूने ! तो अब चलूँ चाय पीने ।" दादाजी उठकर जाने लगे ।
"दादाजी ! जब बात सहायता की है तब तो बिस्किट खरीद कर मैं भी उसकी सहायता करुँगी । तो फिर चलिए दादाजी, चाय पीने !"
आज सालों बाद गाँव की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । चाय वाली की उस दुकान के आस- पास पूरा बाजार सज गया है पर वह चाय की दुकान अभी भी वहीं है । वही कोयले के चूल्हे पर खौलती चाय, काँच के जार में से झाँकते बिस्किट और वही चायवाली । अभी भी जब मैं उसकी दुकान पर जाती हूँ तो उसकी बूढ़ी नजरें मेरे चेहरे में मेरा बचपन ढूंढ़ती हैं और पहचानते ही उसके काँपते हाथ काँच के जार को खोलकर बिस्किट निकालने लगते हैं और मैं कहती हूँ-
"आज बिस्किट के साथ चाय भी पीऊँगी।"
और हम सभी भाई-बहन, जो दादाजी का पूरा कुनबा हैं, दुकान पर बैठ कर चाय पीते हैं ।
हाँ ! गाँव वालों को हमारा ये लड़कपन थोड़ा अजीब लगता है, पर हमारे लिए तो ये तीर्थ का अनुभव है और चाय वाली की चाय के रूप में प्रसाद पाकर हमलोग तृप्त हो जाते हैं ।
मेरे गाँव में सड़क के किनारे एक छोटी-सी चाय की दुकान थी । उस दुकान को एक महिला चलाती थी । वह इस गाँव की नहीं थी इसलिए उसका इस गाँव में उस छोटी-सी झोपड़ी के अलावा और कोई ठिकाना न था । वह अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण इसी छोटी-सी दुकान से करती थी । गाँव के सभी बच्चे, बूढ़े और जवान उसकी दुकान के ग्राहक थे । गाँव में कोई और चाय की दुकान भी तो नहीं थी ।
मैं जब अपने बचपन के दिनों को याद करती हूँ तो उन यादों में उसकी चाय की सोंधी खुशबू भी शामिल होती है जो उस चायवाली के कोयले के चूल्हे पर उबलती रहती थी । जब मैं अपने दादाजी के साथ उसकी दुकान पर जाती तो काँच के जार में रखे पंजों के आकार के बड़े-बड़े बिस्किट मुझे आकर्षित करते थे । दादाजी तो चाय पीने बैठ जाते और मैं अपने सभी भाई-बहनों के लिए गिनकर बिस्किट लेती और भाग आती ।
हालाँकि गाँव के अधिकतर लोग चाय नहीं पीते थे लेकिन मेरे दादाजी उसके नियमित ग्राहक थे । एक दिन मैंने दादाजी से पूछ ही लिया- "दादाजी ! अपने घर में तो रोज़ चाय बनती है, तो फिर आप चाय वाली की दुकान पर चाय पीने क्यों जाते हैं ?"
पहले तो दादाजी ने मुझे बहलाते हुए कह दिया- " तुम्हारे लिए बिस्किट जो लाना होता है ।"
लेकिन उनके इस जवाब से मैं कहाँ संतुष्ट होनेवाली थी। फिर उन्होंने मुझे समझाया कि उसकी दुकान पर चाय पीने के कई उद्देश्य हैं ।
दादाजी ने कहा- " सुबह जब मैं टहलने के बाद चाय पीने जाता हूँ तो मेरे साथ और भी कई लोग होते हैं और सभी साथ में चाय भी पीते हैं । इससे मेरा सबसे मिलना-जुलना भी हो जाता है और साथ में उस गरीब की चाय ज़्यादा बिकती है । फिर शाम के समय भी सभी अपने-अपने काम से लौटते हैं तो चाय के साथ गाँव की समस्याओं पर चर्चा भी हो जाती है ।"
"अच्छा ! तो आप चायवाली की सहायता के लिए चाय पीते हैं !"अब मूल उद्देश्य मेरी समझ में आ चुका था ।
"बिल्कुल सही समझा तूने ! तो अब चलूँ चाय पीने ।" दादाजी उठकर जाने लगे ।
"दादाजी ! जब बात सहायता की है तब तो बिस्किट खरीद कर मैं भी उसकी सहायता करुँगी । तो फिर चलिए दादाजी, चाय पीने !"
आज सालों बाद गाँव की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । चाय वाली की उस दुकान के आस- पास पूरा बाजार सज गया है पर वह चाय की दुकान अभी भी वहीं है । वही कोयले के चूल्हे पर खौलती चाय, काँच के जार में से झाँकते बिस्किट और वही चायवाली । अभी भी जब मैं उसकी दुकान पर जाती हूँ तो उसकी बूढ़ी नजरें मेरे चेहरे में मेरा बचपन ढूंढ़ती हैं और पहचानते ही उसके काँपते हाथ काँच के जार को खोलकर बिस्किट निकालने लगते हैं और मैं कहती हूँ-
"आज बिस्किट के साथ चाय भी पीऊँगी।"
और हम सभी भाई-बहन, जो दादाजी का पूरा कुनबा हैं, दुकान पर बैठ कर चाय पीते हैं ।
हाँ ! गाँव वालों को हमारा ये लड़कपन थोड़ा अजीब लगता है, पर हमारे लिए तो ये तीर्थ का अनुभव है और चाय वाली की चाय के रूप में प्रसाद पाकर हमलोग तृप्त हो जाते हैं ।
“ये अलग बात है कि मुक़द्दर नहीं बदला अपना,
एक ही दर पे रहे…दर नहीं बदला अपना।”
🖤🖤🖤🖤🖤🖤
एक ही दर पे रहे…दर नहीं बदला अपना।”
🖤🖤🖤🖤🖤🖤
ऐसा नहीं कि तेरे दिवाने नहीं हम
बस इन नज़रों से दिखाते नहीं हम
देख तुझे,ये दिल जैसे धड़कता है
ऐसे तो धड़कना सिखाते नहीं हम
लेते हैं सहारे इन इनायतों के हम
जज़्बातों से तुझे लिखाते नहीं हम
तौबा तौबा उफ़ अब हमारी तौबा
छोड़ो, जुल्म तेरे गिनाते नहीं हम
तेरी यादों में गुजरे तो गुजर जाये
ज़िंदगी यूं भी तो बिताते नहीं हम
हैसियत बढ़ ना जाये तेरी "दिव्या"
आँखें,ख्वाबों से जिताते नहीं हम
बस इन नज़रों से दिखाते नहीं हम
देख तुझे,ये दिल जैसे धड़कता है
ऐसे तो धड़कना सिखाते नहीं हम
लेते हैं सहारे इन इनायतों के हम
जज़्बातों से तुझे लिखाते नहीं हम
तौबा तौबा उफ़ अब हमारी तौबा
छोड़ो, जुल्म तेरे गिनाते नहीं हम
तेरी यादों में गुजरे तो गुजर जाये
ज़िंदगी यूं भी तो बिताते नहीं हम
हैसियत बढ़ ना जाये तेरी "दिव्या"
आँखें,ख्वाबों से जिताते नहीं हम