ख़ामोश आंखों में और कितनी वफ़ा रखूं...
तुमको ही चाहूं और तुम्ही से फांसला रखूं..!
🖤🥀✨
तुमको ही चाहूं और तुम्ही से फांसला रखूं..!
🖤🥀✨
तुम्हारी तारीफ में कुछ लिखना चाह रही थी
लेकिन तेरे ख्याल के सिवा कुछ सोच नहीं पाई
जो इतने खुबसूरत हो पहले से
तेरे नूर के जाल से मैं ख़ुद को निकाल नहीं पाई
मैं तुझे तुझसे ख़ूबसूरत कैसे लिखूं
मैं ये जान ना सकी
लोग कहते हैं लिखना आसान है
पर तेरी ख़ूबसूरती बयां कर न पाई
तो मैंने चाँद को तेरे नूर से रूबरू कराया
वो कमबख्त भी उसके बाद ईद का चांद कहलाया ।
,,,,,,,,,❤️🌹✨
लेकिन तेरे ख्याल के सिवा कुछ सोच नहीं पाई
जो इतने खुबसूरत हो पहले से
तेरे नूर के जाल से मैं ख़ुद को निकाल नहीं पाई
मैं तुझे तुझसे ख़ूबसूरत कैसे लिखूं
मैं ये जान ना सकी
लोग कहते हैं लिखना आसान है
पर तेरी ख़ूबसूरती बयां कर न पाई
तो मैंने चाँद को तेरे नूर से रूबरू कराया
वो कमबख्त भी उसके बाद ईद का चांद कहलाया ।
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तुम बिन अधूरा सा मैं,
मेरे लिए पूर्णता सी तुम।
नि:स्वार्थ कृष्ण सा ग़र हूं मैं,
तो मेरे रोम-रोम में राधा सी तुम।।
मेरे लिए पूर्णता सी तुम।
नि:स्वार्थ कृष्ण सा ग़र हूं मैं,
तो मेरे रोम-रोम में राधा सी तुम।।
"उसने कहा था कि मैं तुम्हारा अंत नहीं, परिवर्तन बनूँगी..."
और मैं उस दिन से अब तक बदलता ही चला गया।
पहले मैंने उसके जाने को इत्तेफ़ाक़ समझा।
फिर किस्मत।
फिर उसकी मजबूरी।
और फिर…
ख़ुद को ही सज़ा दे दी।
मैंने शब्दों से किनारा किया,
क्योंकि वो हर अक्षर में छुपकर बैठी थी।
मैंने आईने से दोस्ती तोड़ दी,
क्योंकि चेहरा उसी का अक्स बन गया था।
कभी मैं सोचता था —
कि शायद मैं एक बेहतर प्रेमी होता,
तो वो रुक जाती।
कभी सोचता —
शायद मैं थोड़ा और टूटता,
तो वो लौट आती।
लेकिन अब सोचता हूँ —
वो अगर रुक भी जाती,
तो क्या मैं वही रहता?
जो पहले था?
या जो अब हूँ?
अब तो हाल यह है कि
भीड़ में सबसे ज़्यादा अकेला मैं ही होता हूँ।
ख़ुश रहने वालों के बीच
सबसे उदास मुस्कान मेरी होती है।
मैंने रोना छोड़ दिया है…
क्योंकि अब रोने से कुछ बहता नहीं —
ना आँसू,
ना दर्द,
ना वो।
अब तो बस हर दिन
एक अनकहे ख़त की तरह बीतता है —
जिसे कभी लिखा ही नहीं गया,
पर हर शब्द में उसी का नाम होता है।
उसने कहा था कि "तुम मेरी आदत बन जाओ..."
काश, मैं आदत बन जाता।
अफ़सोस… मैं तो उसकी ज़िंदगी की सबसे प्यारी ग़लती बनकर रह गया।
एक थी
और मैं उस दिन से अब तक बदलता ही चला गया।
पहले मैंने उसके जाने को इत्तेफ़ाक़ समझा।
फिर किस्मत।
फिर उसकी मजबूरी।
और फिर…
ख़ुद को ही सज़ा दे दी।
मैंने शब्दों से किनारा किया,
क्योंकि वो हर अक्षर में छुपकर बैठी थी।
मैंने आईने से दोस्ती तोड़ दी,
क्योंकि चेहरा उसी का अक्स बन गया था।
कभी मैं सोचता था —
कि शायद मैं एक बेहतर प्रेमी होता,
तो वो रुक जाती।
कभी सोचता —
शायद मैं थोड़ा और टूटता,
तो वो लौट आती।
लेकिन अब सोचता हूँ —
वो अगर रुक भी जाती,
तो क्या मैं वही रहता?
जो पहले था?
या जो अब हूँ?
अब तो हाल यह है कि
भीड़ में सबसे ज़्यादा अकेला मैं ही होता हूँ।
ख़ुश रहने वालों के बीच
सबसे उदास मुस्कान मेरी होती है।
मैंने रोना छोड़ दिया है…
क्योंकि अब रोने से कुछ बहता नहीं —
ना आँसू,
ना दर्द,
ना वो।
अब तो बस हर दिन
एक अनकहे ख़त की तरह बीतता है —
जिसे कभी लिखा ही नहीं गया,
पर हर शब्द में उसी का नाम होता है।
उसने कहा था कि "तुम मेरी आदत बन जाओ..."
काश, मैं आदत बन जाता।
अफ़सोस… मैं तो उसकी ज़िंदगी की सबसे प्यारी ग़लती बनकर रह गया।
एक थी
खो जाती हूँ तुझमें फ़िर
अल्फाजों को समेटती हूँ
लिखना चाहती हूँ प्यार तेरा, पर
अपना दर्द लिख जाती हूँ....🥀
अल्फाजों को समेटती हूँ
लिखना चाहती हूँ प्यार तेरा, पर
अपना दर्द लिख जाती हूँ....🥀
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