दर्द –ए – मोहब्बत
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
मैं हो गई थी जिसकी,
उसको भी ये परवाह कहां थी।
वज़ूद अपना मिटाकर,
फिर से सब कुछ भूल कर,
उसकी होने लगी थी मैं।
फिर एक दफा कहीं खोने लगी थी मैं।
न जाने क्या चाहिए था,
क्या हासिल करने लगी थी मैं।
क्यों खुद को इतना मजबूर तब करने लगी थी मैं। वक्त लगा तो सही,
क्योंकि बहुत गहरा वो लगाव था वो...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
रोक लिया अब खुद को क्योंकि,
बहुत मुश्किल को पड़ाव था...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
#Heer_writes
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
मैं हो गई थी जिसकी,
उसको भी ये परवाह कहां थी।
वज़ूद अपना मिटाकर,
फिर से सब कुछ भूल कर,
उसकी होने लगी थी मैं।
फिर एक दफा कहीं खोने लगी थी मैं।
न जाने क्या चाहिए था,
क्या हासिल करने लगी थी मैं।
क्यों खुद को इतना मजबूर तब करने लगी थी मैं। वक्त लगा तो सही,
क्योंकि बहुत गहरा वो लगाव था वो...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
रोक लिया अब खुद को क्योंकि,
बहुत मुश्किल को पड़ाव था...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
#Heer_writes
😍1😘1
👻⋆『𝐑.𝐍.𝐆ujjar』☜↼❤️💐
Photo
हमेशा मुस्कराना ज़रूरी नहीं होता
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
"सब ठीक हो जाएगा।"
"कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।"
"सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।"
"मुस्कुराओ, सब अच्छा है।"
कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, कभी खुद से भी। और पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं, जैसे डूबते को एक शब्दों की लकड़ी मिल गई हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाए?
हां, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, गुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएं होती हैं, और इनका बाहर आना, महसूस किया जाना, रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है। लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें अपनी सच्ची भावनाओं से काट देता है।
किसी के खो जाने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर या सिर्फ थक कर बैठ जाने की इच्छा में भी अगर हमें सिर्फ "पॉजिटिव रहने" की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को नामंज़ूर करना होता है।
"टॉक्सिक पॉजिटिविटी" दरअसल वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द को, उनकी कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि "तुम्हें तो खुश रहना चाहिए", "इसमें भी कुछ अच्छा देखो", "कम से कम तुम ज़िंदा हो"।
इसे समझना ऐसे है, जैसे किसी के गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना — यह सुंदर तो दिखेगा, पर भीतर से रिसता खून अब भी वहीं है।
रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है। जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह खुद को अकेला महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं। अपने आप से कहते हैं — "रोना नहीं है", "मज़बूत बनो", "मैं फील नहीं कर सकता", "जो बीत गया वो गया"। लेकिन हमारा मन रोना चाहता है, सिसकना चाहता है, थककर रुकना चाहता है।
क्या होगा अगर हम सिर्फ कुछ पल के लिए "असली" हो जाएं?
अगर हम अपने आंसुओं को बहने दें, अपने किसी प्रियजन से कहें — "मैं आज टूट रहा हूँ", और वह हमें जवाब में सिर्फ गले से लगा ले, बिना कोई सलाह दिए?
हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि "तुम आज कमजोर हो सकते हो।"
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?
सकारात्मक सोच अच्छी बात है, लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, हमारी थकान, हमारी असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है। एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमारे अपनों को, हमारे बच्चों को, हमारे साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ठीक होना ज़रूरी नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए — तो बस बैठिए, हाथ थामिए, और कहिए,
"मैं सुन रहा / रही हूं हूँ। रो लो। मैं हूँ यहां।"
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
"सब ठीक हो जाएगा।"
"कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।"
"सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।"
"मुस्कुराओ, सब अच्छा है।"
कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, कभी खुद से भी। और पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं, जैसे डूबते को एक शब्दों की लकड़ी मिल गई हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाए?
हां, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, गुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएं होती हैं, और इनका बाहर आना, महसूस किया जाना, रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है। लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें अपनी सच्ची भावनाओं से काट देता है।
किसी के खो जाने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर या सिर्फ थक कर बैठ जाने की इच्छा में भी अगर हमें सिर्फ "पॉजिटिव रहने" की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को नामंज़ूर करना होता है।
"टॉक्सिक पॉजिटिविटी" दरअसल वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द को, उनकी कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि "तुम्हें तो खुश रहना चाहिए", "इसमें भी कुछ अच्छा देखो", "कम से कम तुम ज़िंदा हो"।
इसे समझना ऐसे है, जैसे किसी के गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना — यह सुंदर तो दिखेगा, पर भीतर से रिसता खून अब भी वहीं है।
रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है। जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह खुद को अकेला महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं। अपने आप से कहते हैं — "रोना नहीं है", "मज़बूत बनो", "मैं फील नहीं कर सकता", "जो बीत गया वो गया"। लेकिन हमारा मन रोना चाहता है, सिसकना चाहता है, थककर रुकना चाहता है।
क्या होगा अगर हम सिर्फ कुछ पल के लिए "असली" हो जाएं?
अगर हम अपने आंसुओं को बहने दें, अपने किसी प्रियजन से कहें — "मैं आज टूट रहा हूँ", और वह हमें जवाब में सिर्फ गले से लगा ले, बिना कोई सलाह दिए?
हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि "तुम आज कमजोर हो सकते हो।"
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?
सकारात्मक सोच अच्छी बात है, लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, हमारी थकान, हमारी असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है। एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमारे अपनों को, हमारे बच्चों को, हमारे साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ठीक होना ज़रूरी नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए — तो बस बैठिए, हाथ थामिए, और कहिए,
"मैं सुन रहा / रही हूं हूँ। रो लो। मैं हूँ यहां।"
😍1
🥀🖤🖤Use khyal me lati hu ...
or malal krti hu....🖤🥀🥀
🥀🖤🖤 Mai khud hi aag lgati hu ...
or khud hi jalti hu... 🖤🥀🥀
#Heer_writes
or malal krti hu....🖤🥀🥀
🥀🖤🖤 Mai khud hi aag lgati hu ...
or khud hi jalti hu... 🖤🥀🥀
#Heer_writes
🥰1❤🔥1
चॉक्लेट..
इंसानो से भी ज़्यादा स्वीट होते है
लेकिन कुछ इंसान चॉक्लेट से भी ज़्यादा स्वीट होते हैं
जैसे आप
ने तो मुझे देखा ही होगा...
😇😉😜😜😜😜
इंसानो से भी ज़्यादा स्वीट होते है
लेकिन कुछ इंसान चॉक्लेट से भी ज़्यादा स्वीट होते हैं
जैसे आप
ने तो मुझे देखा ही होगा...
😇😉😜😜😜😜
🕊3🥰2
पक्की प्रीत अपने आप जुड़ रंग लाती है
विरह में अश्रु ना जलने देते हैं तन को
ना शीतलता ही रास आती है..!!
#Ram🕉️♥️
विरह में अश्रु ना जलने देते हैं तन को
ना शीतलता ही रास आती है..!!
#Ram🕉️♥️
🕊1❤1😍1
"
उलझनों की भीड़ में"🍂
___ये झूठी नुमाइश, ये झूठी बनावट, फरेब-ए-नज़र है, नज़र की लगावट
👍2
अजनबी से मुलाकात का डर नहीं यारा
फिक्र है कि फिर कोई रिश्ता ना बन जाए..
फिक्र है कि फिर कोई रिश्ता ना बन जाए..
👍2
जो तुम्हारा वर्तमान का पसंदीदा है ना -- वो कहीं और घटिया शख्स रहा था 😄 और जब वर्तमान से काम निकल जाएगा ना तब वो भी घटिया ही कहलायेगा!--
____
कलयुग मे पसंदीदा स्त्री या पुरुष सम्भवतः होते ही नहीं है ----- दृष्टि मे जब तक स्वार्थ है तब तक ही बस!--- 😄
____
पूरा फेसबुक मे पसंदीदा स्त्री और पुरुष ऐसे नाचते है जैसे :- मोरनी बागा मा बोले आधी रात मा 🤣
____
आकर्षित करने के लिए देह और चेहरा काफी है --- अपनी स्वेच्छा अनुसार पसंदीदा शख्स बदलते रहिए!- 😄 प्रेम मे तो आप निहायती मुर्ख है!-
_
____
कलयुग मे पसंदीदा स्त्री या पुरुष सम्भवतः होते ही नहीं है ----- दृष्टि मे जब तक स्वार्थ है तब तक ही बस!--- 😄
____
पूरा फेसबुक मे पसंदीदा स्त्री और पुरुष ऐसे नाचते है जैसे :- मोरनी बागा मा बोले आधी रात मा 🤣
____
आकर्षित करने के लिए देह और चेहरा काफी है --- अपनी स्वेच्छा अनुसार पसंदीदा शख्स बदलते रहिए!- 😄 प्रेम मे तो आप निहायती मुर्ख है!-
_
❤2👍1
तूने दे दिया है उसे ज़िस्म तेरा...
अब भूल जा हीर के तेरी कोई इज़्ज़त होगी...!!😮💨🤌❤️🩹
अब भूल जा हीर के तेरी कोई इज़्ज़त होगी...!!😮💨🤌❤️🩹
❤1❤🔥1
कुछ दिन से ज़िंदगी मुझे पहचानती नहीं
यूं देखती है जैसे मुझे जानती नहीं....🖇️
यूं देखती है जैसे मुझे जानती नहीं....🖇️
👍1👏1😢1💔1
🙏🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🙏
*पुराने लोग "भावुक" थे, तब वो सम्बन्ध को सम्भालते थे..*
*बाद में लोग "प्रेक्टिकल" हो गए, तब वो सम्बन्ध का फायदा उठाने लगे..*
*अब तो लोग "प्रोफेशनल" हो गए है, अगर "फायदा" है तो ही सम्बन्ध बनाते है।*
🙏🌹🌹🙏
*पुराने लोग "भावुक" थे, तब वो सम्बन्ध को सम्भालते थे..*
*बाद में लोग "प्रेक्टिकल" हो गए, तब वो सम्बन्ध का फायदा उठाने लगे..*
*अब तो लोग "प्रोफेशनल" हो गए है, अगर "फायदा" है तो ही सम्बन्ध बनाते है।*
🙏🌹🌹🙏
😍2