नेताजी सुभाषचंद्र बोस की कलम से-
स्वामीजी पूर्ण विकसित पौरुष से संपन्न थे। उनके रग-रग में योद्धापन भरा था। इसीलिए वे शक्ति के उपासक थे और इसी कारण उन्होंने अपने देशवासियों का उत्थान करने हेतु वेदांत की एक नवीन व्यवहारिक व्याख्या दी। "उपनिषद-- शक्ति, शक्ति और शक्ति का उपदेश देते हैं।"यही बात स्वामी जी बारंबार कहते थे। चरित्र-गठन को वे सर्वाधिक महत्व दे गए हैं। वे विश्व के प्रथम ऐसे सर्वोच्च कोटि के योगी थे जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद भी स्वदेश तथा मानवता के नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। यदि मैं भूल नहीं करता
तो आधुनिक भारत उन्हीं की सृष्टि है।
श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद के प्रति मैं कितना ऋणी हूं यह शब्दों में लिखकर भला मैं कैसे व्यक्त कर सकता हूं। उन्हीं के पुण्य प्रभाव से मेरे जीवन में चेतना का प्रथम प्रादुर्भाव हुआ था। निवेदिता के समान ही मेरा भी विश्वास है कि रामकृष्ण और विवेकानंद एक ही अखंड व्यक्तित्व के दो रूप हैं। आज यदि स्वामीजी जीवित होते, तो निश्चय ही वे मेरे गुरु होते--अर्थात मैंने अवश्य ही उनका गुरु के रूप में वरण कर लिया होता। अस्तु । कहना न होगा कि मैं जब तक जीवित रहूंगा 'रामकृष्ण-विवेकानंद' का अनन्य अनुगत तथा अनुरागी बना रहूंगा।
स्वामीजी का यथार्थ मूल्यांकन करने के लिए उन्हें परमहंस देव के साथ मिलाकर देखना होगा। वर्तमान स्वाधीनता आंदोलन की नींव स्वामीजी की वाणी पर ही आश्रित है। भारतवर्ष को यदि स्वाधीन होना है तो उसमें हिंदुत्व या इस्लाम का प्रभुत्व होने से काम न होगा-- उसे राष्ट्रीयता के आदर्श से अनुप्राणित कर विभिन्न संप्रदायों का सम्मिलित निवास-स्थान बनाना होगा। रामकृष्ण-विवेकानंद का 'धर्म- समन्वय' का संदेश भारतवासियों को संपूर्ण ह्रदय के साथ अपनाना होगा।....
ॐ
सुभाषचंद्र बोस (1897- 1945)
प्रस्तुतिकर्ता Suresh Kumar Chandrakerजी
स्वामीजी पूर्ण विकसित पौरुष से संपन्न थे। उनके रग-रग में योद्धापन भरा था। इसीलिए वे शक्ति के उपासक थे और इसी कारण उन्होंने अपने देशवासियों का उत्थान करने हेतु वेदांत की एक नवीन व्यवहारिक व्याख्या दी। "उपनिषद-- शक्ति, शक्ति और शक्ति का उपदेश देते हैं।"यही बात स्वामी जी बारंबार कहते थे। चरित्र-गठन को वे सर्वाधिक महत्व दे गए हैं। वे विश्व के प्रथम ऐसे सर्वोच्च कोटि के योगी थे जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद भी स्वदेश तथा मानवता के नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। यदि मैं भूल नहीं करता
तो आधुनिक भारत उन्हीं की सृष्टि है।
श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद के प्रति मैं कितना ऋणी हूं यह शब्दों में लिखकर भला मैं कैसे व्यक्त कर सकता हूं। उन्हीं के पुण्य प्रभाव से मेरे जीवन में चेतना का प्रथम प्रादुर्भाव हुआ था। निवेदिता के समान ही मेरा भी विश्वास है कि रामकृष्ण और विवेकानंद एक ही अखंड व्यक्तित्व के दो रूप हैं। आज यदि स्वामीजी जीवित होते, तो निश्चय ही वे मेरे गुरु होते--अर्थात मैंने अवश्य ही उनका गुरु के रूप में वरण कर लिया होता। अस्तु । कहना न होगा कि मैं जब तक जीवित रहूंगा 'रामकृष्ण-विवेकानंद' का अनन्य अनुगत तथा अनुरागी बना रहूंगा।
स्वामीजी का यथार्थ मूल्यांकन करने के लिए उन्हें परमहंस देव के साथ मिलाकर देखना होगा। वर्तमान स्वाधीनता आंदोलन की नींव स्वामीजी की वाणी पर ही आश्रित है। भारतवर्ष को यदि स्वाधीन होना है तो उसमें हिंदुत्व या इस्लाम का प्रभुत्व होने से काम न होगा-- उसे राष्ट्रीयता के आदर्श से अनुप्राणित कर विभिन्न संप्रदायों का सम्मिलित निवास-स्थान बनाना होगा। रामकृष्ण-विवेकानंद का 'धर्म- समन्वय' का संदेश भारतवासियों को संपूर्ण ह्रदय के साथ अपनाना होगा।....
ॐ
सुभाषचंद्र बोस (1897- 1945)
प्रस्तुतिकर्ता Suresh Kumar Chandrakerजी
Forwarded from E - समिधा BOOKS
ये समाजी पहले तो आपके भगवानों को मनुष्य बताएंगे फिर उन्हें सामान्य से भी नीचे कर देंगे।
इसलिए कलयुगी कालनेमियो से सावधान।
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Forwarded from E - समिधा BOOKS
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ३५ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 35 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ३६ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 36 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ३७ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 37 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ३८ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 38 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ३९ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 39 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ४० | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 40 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ४१ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 41 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ४२ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 42 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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📹 म्लेच्छराज ― अनुभाग ४३ | निग्रहाचार्य | Mlechchha Raaj ― Episode 43 | Dark Secrets | Nigrahacharya →
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वीडियो में आर्य समाज के मंत्री शम्बूनाथ शास्त्री जी कह रहे है कि जब आदिकाल में कथित 4 ऋषियों को ज्ञान प्राप्त हुआ तब उस समय उनके अलावा कोई नही था।
परन्तु आप मनुस्मृति अध्याय 1 श्लोक 22 देखेंगे तो उसमें देवता, मनुष्य, पशु- पक्षी आदि की सृष्टि एक साथ होती है।(आर्य समाजी भाष्य)
फिर इसी श्लोक के आगे श्लोक 23 में 3 ऋषियों की बात आती है जिसमे आर्य समाज कहता है कि ऋषियों को वेद प्राप्त हुआ।
अब इसमे देखिये की शंभूनाथ जी बार बार ये कह रहे है कि 4 ऋषियों को वेद ज्ञान प्राप्त हुआ। परन्तु आर्य समाजी लोग या दयानन्द सरस्वती जी मनुस्मृति का अच्छे से अध्ययन करते तो उन्हें पता चलता कि मनुस्मृति अध्याय 1 श्लोक 23 में ऋषि शब्द ही नही है।
और वहां पर इन अग्नि,वायु,रवि से वेद को दुहकर प्रकट करने की बात कही गयी है।
अब दुदोह शब्द का अर्थ तो कोई सामान्य व्यक्ति भी बता सकता है कि इन अग्नि,वायु,रवि से वेद लिया जा रहा है ना कि इनको दिया जा रहा है।
लेकिन आर्य समाज जो स्वघोषित विद्वान बना फिरता है वो सामान्य सी बात को नही समझ पाया तो अन्य शास्त्र का इन्होंने क्या बेड़ागर्ग किया होगा नारायण ही जाने।
JOIN - @ESAMIDHA
परन्तु आप मनुस्मृति अध्याय 1 श्लोक 22 देखेंगे तो उसमें देवता, मनुष्य, पशु- पक्षी आदि की सृष्टि एक साथ होती है।(आर्य समाजी भाष्य)
फिर इसी श्लोक के आगे श्लोक 23 में 3 ऋषियों की बात आती है जिसमे आर्य समाज कहता है कि ऋषियों को वेद प्राप्त हुआ।
अब इसमे देखिये की शंभूनाथ जी बार बार ये कह रहे है कि 4 ऋषियों को वेद ज्ञान प्राप्त हुआ। परन्तु आर्य समाजी लोग या दयानन्द सरस्वती जी मनुस्मृति का अच्छे से अध्ययन करते तो उन्हें पता चलता कि मनुस्मृति अध्याय 1 श्लोक 23 में ऋषि शब्द ही नही है।
और वहां पर इन अग्नि,वायु,रवि से वेद को दुहकर प्रकट करने की बात कही गयी है।
अब दुदोह शब्द का अर्थ तो कोई सामान्य व्यक्ति भी बता सकता है कि इन अग्नि,वायु,रवि से वेद लिया जा रहा है ना कि इनको दिया जा रहा है।
लेकिन आर्य समाज जो स्वघोषित विद्वान बना फिरता है वो सामान्य सी बात को नही समझ पाया तो अन्य शास्त्र का इन्होंने क्या बेड़ागर्ग किया होगा नारायण ही जाने।
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आर्य समाजी विद्वानों की कोई भी पुस्तक स्वतंत्रता से पढ़ने योग्य नहीं है। प्रत्येक विद्वान कहीं न कहीं अपने घोषित ऋषि के बचाव में छल करता ही करता है।
Forwarded from E - समिधा BOOKS
जैसे ही कोई आपदा आतंकवादी हमला भारत पाकिस्तान टेंशन होती तो लोगो को उग्र साधना की याद आती धर्म रक्षण के लिए । एक पोस्ट तो सीधे यज्ञ के लिए सहयोग के लिए थी।
सीधे आपदा में अवसर कमा लिया जाए कुछ।
भैया 13 से 16 के बीच मेरे एक मित्र और मैंने खूब कोशिश की कि लोगो की टीम बन जाये जो एक डेढ़ घण्टे राष्ट्र के।लिए धर्म के लिए जप कर सके ।लेकिन 4 5 लोगो के सिवा कोई मिला ही नही।उन्होंने तो सीखना बन्द कर दिया ।
मैंने तो ये देखा लोग खुद के लिए करने को तैयार नही ,खुद की समस्या हल करने के लिए तांत्रिक खोज रहे राष्ट्र के लिए खाक करेगे।
वो इंतजार करते किसी सिद्ध का अवतार का नायक का जो सबकी समस्या हल करेगा।
खैर ये लड़ाई एक दिन की नही रोज की है-
1.अपनी शक्तियों को पोषित करे जप, पाठ हंवन बलि के द्वारा।
2. अधिक से अधिक लोगो को प्रेरित करे जप पाठ के लिए हनुमान चालीसा, शिव शिव, राम राम काली काली दुर्गा दुर्गा का जप करे।
3. महीने में कम से कम एक बार हवन करवाये या करे।
4. अपने कुल की शक्तियों को भोग वर्ष में एक बार की जगह कई बार दे।
5. जो करना चाहते उन्हें तन्त्र सिखाएं।
6. एस्ट्रल की लड़ाई जीते जिससे भौतिक में हिन्दू धर्म का भाग्य सुधरे। आपका नेता ऊपर जाने पे पिलपिला न हो जाये गुजरात का मोदी रहे उसमें मोती की आत्मा न घुसे।
मैं 4 5 उग्र विद्या नॉर्मली करवाता हु दुर्गा जी,दक्षिण काली, बगलामुखी,भैरव ,कमला आदि बाकी भी योग्यता होने पे दे सकता हूँ भैरवी तारा प्रत्यंगिरा।
साभार - श्री आशुतोष देवलिया सम्पूर्णानन्द जी
सीधे आपदा में अवसर कमा लिया जाए कुछ।
भैया 13 से 16 के बीच मेरे एक मित्र और मैंने खूब कोशिश की कि लोगो की टीम बन जाये जो एक डेढ़ घण्टे राष्ट्र के।लिए धर्म के लिए जप कर सके ।लेकिन 4 5 लोगो के सिवा कोई मिला ही नही।उन्होंने तो सीखना बन्द कर दिया ।
मैंने तो ये देखा लोग खुद के लिए करने को तैयार नही ,खुद की समस्या हल करने के लिए तांत्रिक खोज रहे राष्ट्र के लिए खाक करेगे।
वो इंतजार करते किसी सिद्ध का अवतार का नायक का जो सबकी समस्या हल करेगा।
खैर ये लड़ाई एक दिन की नही रोज की है-
1.अपनी शक्तियों को पोषित करे जप, पाठ हंवन बलि के द्वारा।
2. अधिक से अधिक लोगो को प्रेरित करे जप पाठ के लिए हनुमान चालीसा, शिव शिव, राम राम काली काली दुर्गा दुर्गा का जप करे।
3. महीने में कम से कम एक बार हवन करवाये या करे।
4. अपने कुल की शक्तियों को भोग वर्ष में एक बार की जगह कई बार दे।
5. जो करना चाहते उन्हें तन्त्र सिखाएं।
6. एस्ट्रल की लड़ाई जीते जिससे भौतिक में हिन्दू धर्म का भाग्य सुधरे। आपका नेता ऊपर जाने पे पिलपिला न हो जाये गुजरात का मोदी रहे उसमें मोती की आत्मा न घुसे।
मैं 4 5 उग्र विद्या नॉर्मली करवाता हु दुर्गा जी,दक्षिण काली, बगलामुखी,भैरव ,कमला आदि बाकी भी योग्यता होने पे दे सकता हूँ भैरवी तारा प्रत्यंगिरा।
साभार - श्री आशुतोष देवलिया सम्पूर्णानन्द जी
"जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते"।
इस श्लोक का कर्मणा वर्ण-व्यवस्था मानने वालों द्वारा बड़ा प्रचार किया जाता है। आर्यसमाजी कहते हैं कि - "देखो, देखो, सभी जन्म से शूद्र ही उत्पन्न होते हैं, और संस्कारों से वे द्विज कहलाते हैं"।
हालांकि इस श्लोक से उनका मंतव्य तो सिद्ध नहीं होता, उल्टा अनजाने में इससे जन्मना वर्ण-व्यवस्था ही सिद्ध हो जाती है। क्यों कि इस श्लोक में "जन्म" से सबको शूद्र वर्ण का मान लिया गया, तब कर्मणा वर्ण-व्यवस्था तो खंडित हो गई। क्यों कि शूद्र का कर्म सेवा करना माना जाता है। अब जन्म लेने वाले ने सेवा-कर्म तो कोई किया नहीं, उल्टा सेवा करवा रहा है, फिर भी "केवल जन्म के कारण" उसे कर्मणा-व्यवस्था के विरुद्ध शूद्र मान लेने से तो 'कर्मणा व्यवस्था की धज्जियाँ ही उड़ गईं, और जन्मना वर्ण सिद्ध हो गया।
आर्यसमाजियों के सामने फिर एक और बड़ी समस्या खड़ी होगी। वह यह कि - शूद्र के उपनयन संस्कार की विधि किसी शास्त्र में नहीं मिलती। स्वामी दयानंद भी शूद्रों के उपनयन-संस्कार का विधान बताकर नहीं गए हैं, अर्थात् वे शूद्रों का उपनयन-संस्कार का निषेध कर गए हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन तो स्वामी दयानंद अपनी पुस्तक 'संस्कार विधि' में लिख गए हैं, किस आयु में करना है, सब बताकर गए हैं, किंतु शूद्र का नहीं बताकर गए हैं। तब ये जो जन्म से सब आर्यसमाजी शूद्र पैदा होंगे, इनका उपनयन ही नहीं हो पाएगा, न वेद पढ़ पाएंगे, तब तो सब समाजी शूद्र ही रहेंगे, द्विज कैसे बन पाएंगे? ये श्लोक भी तब कैसे फलित होगा? अर्थात् यदि जन्म से सबको वास्तविक शूद्र माना गया होता, तब तो प्रत्येक शास्त्र में शूद्र के उपनयन आदि संस्कारो का विधान दिया गया होता, किंतु वह तो किसी शास्त्र में है ही नहीं। इस प्रकार यह पक्ष पूर्णतः खंडित हो गया।
अतः इस श्लोक का तात्पर्य यह नहीं है कि जन्म से सब शूद्र वर्ण के होते हैं। इसका तात्पर्य है कि उपनयन-कर्म से पूर्व एकज होने से सब शूद्र के समान होते हैं। क्यों कि शूद्र का उपनयन नहीं होता है। अर्थात् यहाँ असंस्कृत अवस्था कही गई है।
अब समाजी कहें कि - श्लोक में "शूद्रवत्" शब्द है ही नहीं तो नहीं, फिर "शूद्र के समान" अर्थ क्यों ग्रहण करें?
इसके समाधान के लिए पतंजलि का महाभाष्य देखें, उसमें आता है - "अंतरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते। तद् यथा - एष ब्रह्मदत्तः। अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह, तेन मन्यावहे - ब्रह्मदत्तवद् अयं भवति।"
अर्थात - जो "वह" न हो, किंतु उसको "वह" कह दिया जाए, तो उसका भाव होता है - "उसके समान"।
अतः ऐसे स्थलों पर "वत्" प्रत्यय न होने पर भी "वत्" का अर्थ लग जाता है। जैसे कि कहा गया है - "विद्याविहीनः पशुः" अर्थात् विद्याविहीन मनुष्य पशु होता है। अब यहाँ क्या मनुष्य साक्षात चार पैरों वाला पशु हो जाता है? नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए यहाँ पर "पशुरिव" अर्थ लिया जाएगा। पशु के समान उसे समझा जाता है। इसी प्रकार उपनयन के पूर्व ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को शूद्र कहना भी अर्थवाद है।
जैसे कि कहा जाता है - "दुर्जनः सर्पः" - तब दुर्जन को क्या वास्तविक साँप समझकर आर्यसमाजी उसे स्वामी दयानंद के कहे अनुसार अंधा करके "बेडरूम" में लेकर भाग पड़ेंगे? कहा जाए - "कायरः मृतकः", तब आर्यसमाज में कोई मनुष्य कायरता दिखाए तो उसे मृतक ही मानकर समाजी उसका दाह संस्कार करने का उद्योग करने लगेंगे? "आलसीः पाषाणः" - आलसी मनुष्य को पत्थर मानकर समाजी उस पर सिर मारेंगे?
स्वयं आर्यसमाजी ही स्वामी दयानंद के लिए कहते हैं कि - "दयानन्दः सिंहः आसीत्।" - स्वामी जी शेर थे। तब आर्यसमाजी अपनी बुद्धि का उपयोग करके उन्हें "सिंह के समान" मानेंगे अथवा "जन्मना जायते शूद्रः" की भाँति स्वामी जी को शिकार करने वाला, नरभक्षी, मांस खाने वाला, शेरनियों से भोग करने वाला, जंगल का शेर ही मान लेंगे?
स्मृतियों में ऐसे अनेक वाक्य मिलते हैं - "ब्राह्मणाद्याः शूद्रतां यांति संस्कारहीनाः" - अर्थात - ब्राह्मण आदि, संस्कारों के अभाव में शूद्रतुल्य हो जाते हैं। बस यही शूद्रवत् होना संस्कारों के अभाव में जन्म से होना कहा गया है।
इसी प्रकार "ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः" का भी समझना चाहिए। वैसे यह उत्तरार्ध किसी टीका में मिलता नहीं है। लेकिन हो भी तो यह ब्रह्मज्ञान का प्रशंसार्थवाद है। अन्यथा उपनिषदों में वर्णित अश्वपति, प्रवाहण, जनक, अजातशत्रु, यम आदि ब्रह्मज्ञाता थे किंतु उन्हें ब्राह्मण नहीं कहा गया है। और ब्रह्मविद्या न जानने वालों को भी अब्राह्मण नहीं कहा गया, बल्कि ब्राह्मण ही कहा गया है। जैसे कि नचिकेता, गार्ग्य, बालाकि आदि ब्रह्मविद्या न जानते हुए भी ब्राह्मण ही कहे और माने गए हैं। शास्त्रो में ऐसे हजारो उदाहरण हैं, लेकिन जन्म से सबको शूद्र जाति का समझा गया हो, ऐसा कोई उल्लेख कही नहीं मिलता। अतः ऐसे कथन प्रशंसार्थवाद और औपचारिक होते है।
इस श्लोक का कर्मणा वर्ण-व्यवस्था मानने वालों द्वारा बड़ा प्रचार किया जाता है। आर्यसमाजी कहते हैं कि - "देखो, देखो, सभी जन्म से शूद्र ही उत्पन्न होते हैं, और संस्कारों से वे द्विज कहलाते हैं"।
हालांकि इस श्लोक से उनका मंतव्य तो सिद्ध नहीं होता, उल्टा अनजाने में इससे जन्मना वर्ण-व्यवस्था ही सिद्ध हो जाती है। क्यों कि इस श्लोक में "जन्म" से सबको शूद्र वर्ण का मान लिया गया, तब कर्मणा वर्ण-व्यवस्था तो खंडित हो गई। क्यों कि शूद्र का कर्म सेवा करना माना जाता है। अब जन्म लेने वाले ने सेवा-कर्म तो कोई किया नहीं, उल्टा सेवा करवा रहा है, फिर भी "केवल जन्म के कारण" उसे कर्मणा-व्यवस्था के विरुद्ध शूद्र मान लेने से तो 'कर्मणा व्यवस्था की धज्जियाँ ही उड़ गईं, और जन्मना वर्ण सिद्ध हो गया।
आर्यसमाजियों के सामने फिर एक और बड़ी समस्या खड़ी होगी। वह यह कि - शूद्र के उपनयन संस्कार की विधि किसी शास्त्र में नहीं मिलती। स्वामी दयानंद भी शूद्रों के उपनयन-संस्कार का विधान बताकर नहीं गए हैं, अर्थात् वे शूद्रों का उपनयन-संस्कार का निषेध कर गए हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन तो स्वामी दयानंद अपनी पुस्तक 'संस्कार विधि' में लिख गए हैं, किस आयु में करना है, सब बताकर गए हैं, किंतु शूद्र का नहीं बताकर गए हैं। तब ये जो जन्म से सब आर्यसमाजी शूद्र पैदा होंगे, इनका उपनयन ही नहीं हो पाएगा, न वेद पढ़ पाएंगे, तब तो सब समाजी शूद्र ही रहेंगे, द्विज कैसे बन पाएंगे? ये श्लोक भी तब कैसे फलित होगा? अर्थात् यदि जन्म से सबको वास्तविक शूद्र माना गया होता, तब तो प्रत्येक शास्त्र में शूद्र के उपनयन आदि संस्कारो का विधान दिया गया होता, किंतु वह तो किसी शास्त्र में है ही नहीं। इस प्रकार यह पक्ष पूर्णतः खंडित हो गया।
अतः इस श्लोक का तात्पर्य यह नहीं है कि जन्म से सब शूद्र वर्ण के होते हैं। इसका तात्पर्य है कि उपनयन-कर्म से पूर्व एकज होने से सब शूद्र के समान होते हैं। क्यों कि शूद्र का उपनयन नहीं होता है। अर्थात् यहाँ असंस्कृत अवस्था कही गई है।
अब समाजी कहें कि - श्लोक में "शूद्रवत्" शब्द है ही नहीं तो नहीं, फिर "शूद्र के समान" अर्थ क्यों ग्रहण करें?
इसके समाधान के लिए पतंजलि का महाभाष्य देखें, उसमें आता है - "अंतरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते। तद् यथा - एष ब्रह्मदत्तः। अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह, तेन मन्यावहे - ब्रह्मदत्तवद् अयं भवति।"
अर्थात - जो "वह" न हो, किंतु उसको "वह" कह दिया जाए, तो उसका भाव होता है - "उसके समान"।
अतः ऐसे स्थलों पर "वत्" प्रत्यय न होने पर भी "वत्" का अर्थ लग जाता है। जैसे कि कहा गया है - "विद्याविहीनः पशुः" अर्थात् विद्याविहीन मनुष्य पशु होता है। अब यहाँ क्या मनुष्य साक्षात चार पैरों वाला पशु हो जाता है? नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए यहाँ पर "पशुरिव" अर्थ लिया जाएगा। पशु के समान उसे समझा जाता है। इसी प्रकार उपनयन के पूर्व ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को शूद्र कहना भी अर्थवाद है।
जैसे कि कहा जाता है - "दुर्जनः सर्पः" - तब दुर्जन को क्या वास्तविक साँप समझकर आर्यसमाजी उसे स्वामी दयानंद के कहे अनुसार अंधा करके "बेडरूम" में लेकर भाग पड़ेंगे? कहा जाए - "कायरः मृतकः", तब आर्यसमाज में कोई मनुष्य कायरता दिखाए तो उसे मृतक ही मानकर समाजी उसका दाह संस्कार करने का उद्योग करने लगेंगे? "आलसीः पाषाणः" - आलसी मनुष्य को पत्थर मानकर समाजी उस पर सिर मारेंगे?
स्वयं आर्यसमाजी ही स्वामी दयानंद के लिए कहते हैं कि - "दयानन्दः सिंहः आसीत्।" - स्वामी जी शेर थे। तब आर्यसमाजी अपनी बुद्धि का उपयोग करके उन्हें "सिंह के समान" मानेंगे अथवा "जन्मना जायते शूद्रः" की भाँति स्वामी जी को शिकार करने वाला, नरभक्षी, मांस खाने वाला, शेरनियों से भोग करने वाला, जंगल का शेर ही मान लेंगे?
स्मृतियों में ऐसे अनेक वाक्य मिलते हैं - "ब्राह्मणाद्याः शूद्रतां यांति संस्कारहीनाः" - अर्थात - ब्राह्मण आदि, संस्कारों के अभाव में शूद्रतुल्य हो जाते हैं। बस यही शूद्रवत् होना संस्कारों के अभाव में जन्म से होना कहा गया है।
इसी प्रकार "ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः" का भी समझना चाहिए। वैसे यह उत्तरार्ध किसी टीका में मिलता नहीं है। लेकिन हो भी तो यह ब्रह्मज्ञान का प्रशंसार्थवाद है। अन्यथा उपनिषदों में वर्णित अश्वपति, प्रवाहण, जनक, अजातशत्रु, यम आदि ब्रह्मज्ञाता थे किंतु उन्हें ब्राह्मण नहीं कहा गया है। और ब्रह्मविद्या न जानने वालों को भी अब्राह्मण नहीं कहा गया, बल्कि ब्राह्मण ही कहा गया है। जैसे कि नचिकेता, गार्ग्य, बालाकि आदि ब्रह्मविद्या न जानते हुए भी ब्राह्मण ही कहे और माने गए हैं। शास्त्रो में ऐसे हजारो उदाहरण हैं, लेकिन जन्म से सबको शूद्र जाति का समझा गया हो, ऐसा कोई उल्लेख कही नहीं मिलता। अतः ऐसे कथन प्रशंसार्थवाद और औपचारिक होते है।
वास्तविक नहीं।
न्याय शास्त्र में कहा गया है - "प्रधानशब्दानुपपत्तेः गुणशब्देन अनुवादः, निंदाप्रशंसोपपत्तेः"। ऐसे स्थलों पर निंदा-प्रशंसा ही विवक्षित होती है, वास्तविकता नहीं। जो शास्त्रीय रीति नहीं समझते अथवा किसी सांप्रदायिक दुराग्रह से ग्रस्त होते हैं, ऐसे अज्ञानी न शास्त्रों की शैली समझते हैं, न रीति, न ही बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हैं। केवल अपनी मतांधता में शास्त्रों के सैकड़ों प्रमाणों की अवहेलना करके, ऐसे श्लोकों से गलत भाव ग्रहण करके भ्रम फैलाते हैं।
साभार - शचीन्द्र शर्मा जी
न्याय शास्त्र में कहा गया है - "प्रधानशब्दानुपपत्तेः गुणशब्देन अनुवादः, निंदाप्रशंसोपपत्तेः"। ऐसे स्थलों पर निंदा-प्रशंसा ही विवक्षित होती है, वास्तविकता नहीं। जो शास्त्रीय रीति नहीं समझते अथवा किसी सांप्रदायिक दुराग्रह से ग्रस्त होते हैं, ऐसे अज्ञानी न शास्त्रों की शैली समझते हैं, न रीति, न ही बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हैं। केवल अपनी मतांधता में शास्त्रों के सैकड़ों प्रमाणों की अवहेलना करके, ऐसे श्लोकों से गलत भाव ग्रहण करके भ्रम फैलाते हैं।
साभार - शचीन्द्र शर्मा जी