प्रच्छन्न इतिहास (History)
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परमहंस रामकृष्ण मृत्युशैया पर हैं...

उनकी पत्नी देवी शारदा रोने लगती हैं...

वे विह्वल होकर परमहंस से पूछती हैं - "आप तो जा रहे हैं, मेरा क्या होगा.??

परमहंस ने आँखें खोली और कहा - "जा रहा हूँ.?"

अरे पागल ! जाऊँगा कहाँ.?

जाने का कोई स्थल कहाँ है.?

यहीं था ! यहीं रहूँगा !

अभी तक देह में था, अब बिना देह रहूँगा !

यह उद्गार केवल सनातन धर्म में ही सम्भव है।

क्योंकि यहाँ ही आत्मा के अविनाशी होने का प्रमाण है।

क्योंकि यहाँ ही यह शास्वत सत्य प्रभु श्री कृष्ण ने कहा है...

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २:23)

जय सनातन धर्म 🙏🚩
जय योगेश्वर श्रीकृष्ण 🙏🌺
जय माँ दक्षिणेश्वर महाकाली🙏🌺
जय महाकाल🙏🔱🚩
#प्रेमझा

साभार - श्री प्रेम झा जी
परंपरा किसे कहते है?

'कृष्ण जी भगवान नही सामान्य मनुष्य थे।'

ये बात द्वापर में शिशुपाल जैसे लोग मानते थे और कलयुग में आर्य समाज वाले मानते है।
5 हजार साल से ये विचार धारा चल रही है इसी को परंपरा कहते है 😀
प्रच्छन्न इतिहास (History)
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जिस-जिस काल में वर्णाश्रमादि-लक्षण जो धर्म है, उसकी हानि होती है, वह जब कमज़ोर पड़ जाता है, तब भगवान् मानो उत्पन्न होते हैं। वर्णाश्रम-लक्षण वाला धर्म अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों देने वाला है, इस लोक में और परलोक में सब प्रकार की उन्नतियों को देने वाला एवं इस जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने वाला है। जो चाहता है लौकिक उन्नति, उसको भी यह धर्म उपाय बतलाता है, जी चाहता है पारलौकिक उन्नति, ब्रह्मलोक-पर्यन्त जाने की जिसे इच्छा है, उसको भी उपाय बताता है। और जो इससे दुःखी हो गया है, इससे छूटना चाहता है, उसे इससे छूटने का भी उपाय बतलाता है। धर्मरूप इस साधन के बिना प्राणी न उन्नति कर सकेंगे, न मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। इसलिये जब उसकी हानि होती है, जब वह कमज़ोर पड़ता है, तब भगवान् का अवतार होता है। मनुष्य बिना कुछ आधार लिये तो जीता नहीं है। जब धर्म की ग्लानि होगी तब उससे जो विपरीत है अधर्म वह ऊपर उठेगा, अधर्म को ही मनुष्य अपना जीवन का ढंग समझेगा। वर्तमान काल में दीख ही रहा है। बड़े-बड़े लोग भी यही कहते हैं कि जितनी वर्णाश्रम की मर्यादायें हैं इनके कारण ही सनातन धर्म ठीक नहीं है अधर्म का आश्रयण करें तभी उन्नति हो सकती है! 'अभ्युत्थानम्' चारों तरफ अधर्म का उत्थान होता है। अधर्म ही उन्नति करता हुआ दीखता है। पहले लोग कहते थे 'अरे! झूठ बोलते हो तो कहाँ जाओगे!' अब कहते हैं 'महाराज! हम तो गृहस्थ हैं, सच बोल कर कैसे चलेगा!' यही है अधर्म का अभितः अर्थात् सब तरफ से उत्थान। जो तुम्हारी जड़ों को खोखला करने वाला है, उसे ही उन्नति का उपाय मान लेते हो। जब अधर्म का अभ्युत्थान दीखता है तब जो थोड़ा-बहुत धर्म का आचरण करने वाला है वह भी सोचने लगता है कि अधर्म का ही सहारा लेना चाहिये, इसके बिना चलता नहीं। भगवान् कह रहे हैं कि जब ऐसा होता है तब मैं अपने आपको माया के द्वारा शरीरधारी रूप में दिखला कर धर्म का उपदेश करता हूँ, धर्म का रक्षण करता हूँ। भगवान् का जन्म कब होता है यह भी बतला दिया, और किस उद्देश्य से होता है यह अगले श्लोक में स्पष्ट करेंगे।

महाभारत काल के ऊपर दृष्टि डालो दुर्योधन, जरासन्ध, शिशुपाल ये सब तब बड़े-बड़े राज्यों के मालिक थे, और युधिष्ठिर सब तरह की सामर्थ्य होने पर भी जंगलों में भटकते थे। यही प्रतीत हो रहा था कि अधर्म का अभ्युत्थान है। इसी प्रकार से रावण इतने बड़े राज्य का मालिक था, सोने की लंका थी, अधर्म का अभ्युत्थान दीख रहा था।

जिन ऋषियों का उसने खून लिया था, वे तो बिलकुल कमज़ोर से हो रहे थे। भगवान् के प्रकट होने के काल को देखो तो काल वही मिलेगा जब धर्म का हास और अधर्म का उत्थान होता है।

जो लौकिकों की शंका रहती है कि कृष्ण ईश्वर कैसे? उसका भगवान् ने समाधान बतला दिया कि अधिष्ठान रहते हुए ही शरीरधारी की प्रतीति हो जाती है। अधिष्ठान सत् रहते हुए ही घट-पट आदि में भी सत् की तरह प्रतीत हो जाता है, उसी प्रकार परमेश्वर अधिष्ठान रहते हुए ही, शरीरों में प्रतीत हो जाता है। वास्तव में शरीर वाला बनतानहीं। जब वर्णाश्रम धर्म की हानि होती है तब उसके विरोधियों का चारों तरफ उत्थान होता है। ये दोनों चीजें तो ऐसी हैं जैसे तराजू के बायें हाथ का पलड़ा जितना नीचे जायेगा, उतना ही दाहिने हाथ का पलड़ा ऊपर जायेगा। इसी प्रकार प्राणिमात्र को, मनुष्यमात्र को जीना तो है ही, जीना या धर्म से करेगा या अधर्म से करेगा। जो भी कर्म करेगा, यह या शास्त्रानुकूल होगा या शास्त्रविरुद्ध होगा। यदि धर्म के अनुसार नहीं करेगा तो अधर्म के अनुसार करेगा। जब धर्म का पलड़ा हल्का होता जाता है तब अधर्म का पलड़ा भारी होता जाता है। तब भगवान् आते हैं। भगवान् ने कहा 'आत्मानं सृजाम्यहम्' जो चीज़ बहार निकाल कर फेंकी जाती है वह पहले अंदर मौजूद होती है। इसी तरह से मायाशक्ति के जंदर सारे रूप निहित हैं। वे रूप बहार प्रकट होते हैं। कुछ लोग इसलिये मानते हैं कि भगवान् के रूप नित्य हैं। यदि उनका नित्य से मतलब आकाशादि की तरह नित्य होना है, तब तो कोई विरोध नहीं, जैसे आकाशादि प्रलयकाल में, अव्यक्त में लीन होते हैं, पुनः प्रकट हो जाते हैं, इसी तरह से भगवान् का रूप माया से प्रकट होता है और पुनः माया में लीन हो जाता है। परंतु यदि उनका नित्य से मतलब है कि रूप निरपेक्ष नित्य हैं, तो वह ठीक नहीं क्योंकि सिवाय एक अधिष्ठान स्वरूप के और कुछ निरपेक्ष नित्य नहीं है। 'सृजामि' से कुछ लोगों ने नित्य रूप की सिद्धि मानी है, लेकिन वह बनती नहीं। बाहर प्रकट करना और अंदर लेना यह एक तरह से व्यय ही है और भगवान् ने ठीक यहीं कहा है कि 'मैं अव्यय-स्वरूप हूँ'। इसलिये व्ययभाव वाला रूप सापेक्ष नित्य ही हो सकता है, निरपेक्ष नित्य नहीं हो सकता ।
नमश्चण्डिकायै 🙏🏻

जब आदिशक्ति माँ हिमवान् के पुत्री रूप में प्रकट हुई तब माता ने प्रसन्न होकर हिमवान् और उनकी भार्या को दिव्य दृष्टि देकर कहा मेरे ऐश्वर्यमय रूप को देखो।

करोड़ों सूर्यके समान (प्रकाशमान) तेजःपुञ्ज, स्थिर, हजारों ज्वालामालाओंसे युक्त, सैकड़ों कालाग्निके समान, भयंकर दाढ़ोंवाला, दुर्धर्ष, जटामण्डलोंसे मण्डित, हाथमें त्रिशूल और वरमुद्रा धारण किये, भयानक, घोर रूप एवं प्रशान्त, सौम्य मुखवाला, अनन्त आश्चर्योंसे युक्त, चन्द्रकलासे चिह्नित, करोड़ों चन्द्रमाओंकी आभावाला मुकुट धारण किये, हाथमें गदा लिये, नूपुरोंसे सुशोभित, दिव्य वस्त्र एवं माला धारण किये, दिव्य सुगन्धित अनुलेपन किये हुए, शङ्ख-चक्रधारी, कमनीय, तीन नेत्रवाले, चर्माम्बरधारी, ब्रह्माण्डके बाहर एवं भीतर (सर्वत्र) स्थित, बाहर तथा भीतर सर्वत्र श्रेष्ठ, सर्वशक्तिमय, शुभ्र, सभी आकारोंसे युक्त, सनातन, ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु और श्रेष्ठ योगियोंद्वारा वन्दित चरणकमलोंवाला, सभी ओर हाथ, पैर, आँख, सिर एवं मुखवाला और सभीको आवृत कर स्थित रहनेवाला (देवीका वह) परमेश्वर-रूप हिमवान् ने देखा।

कूर्मपुराण पूर्वभाग अध्याय 11
E-समिधा
#Esamidha
वेदोंमें मिलावट नहीं हो सकती है , किन्तु फिर भी मिलावटका न केवल कुत्सित प्रयास किया गया है ,बल्कि यह प्रचारित भी किया जा रहा है । जब एक अक्षर परिवर्तन से ही घोर अनर्थ हो जाए ,तब पाठ परिवर्तन से कितनी क्षति होगी? विचार कीजिए देखिये ऋग्वेद शाकल संहिताके मन्त्रमें कैसे एक ही अक्षर परिवर्तनसे कैसे घोर अनर्थ किया है ।

"अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधिशिवापशुभ्यःसुमना:सुवर्चा: ।
वीरसूर्देवकामास्योनाशन्नभवद्विपदेशंचतुष्पदे ।।"(ऋ०सं०१०/८५/४४)

भाष्यार्थ -' (हे वधु !) तुम्हारा नेत्र निर्दोष हो ! तुम पतिके लिए मङ्गलमयी होओ । पशुओंके लिये मङ्गलकारिणी होओ । तुम्हारा मन प्रफुल्लित और तुम्हारा सौन्दर्य शुभ्र हो । तुम वीर-प्रसविनी (वीरपुत्रोंकी माता) और देवों की भक्ता होओ । हमारे मनुष्यों और पशुओंके लिए कल्याणममयी होओ ।'

'अघोरचक्षु:'० प्रभृत मन्त्रमें प्रयुक्त 'देवकामा' (देवोंकी कामना करने वाली ,देव भक्ता) पदके स्थान पर 'देवृकामा'(देवरकी कामना करने वाली ,देवरकी प्रेमिका , देवर-द्वितीय वर ,भाभी-भावीपत्नी) पद करके घोर अनर्थ किया है । संस्कार विधि और दयानन्दजीके विरुद्ध यह अर्थ किया गया है । बड़े आश्चर्यकी बात है ,ये लोग उसी मन्त्रमें प्रयुक्त 'अपतिघ्नी'(पतिका मङ्गल करने वाली) प्रभृति शब्दों पर भी ध्यान नहीं देते । जो पत्नी देवर को पतिके रूपमें चाहने लगेगी ,वह अपतिघ्नी (पतिके लिये मङ्गलमयी) कैसे रह जाएगी ? मन्त्रमें 'वीर-प्रसविनी'(वीर पुत्रों को उत्पन्न करने वाली ) कही गयी है ,वह फिर किस लिये देवर को पति बनाएगी ? देवर से क्यों नियोग करेगी ?
वस्तुत: विवाह विधि में ऋग्वेदसंहिताके मन्त्र पढ़े जाते हैं और उन मन्त्रोंमें 'देवकामा' पद आया है । देवृकामा नहीं । सायणभाष्य में इसी पाठकी व्याख्या मिलती है । अन्य संस्करणोंमें यही पाठ मिलता है । 'देवृकामा' पाठ कहीं भी नहीं है । विवाह प्रभृति संस्कार गृह्यसूत्रोंके अनुसार किये जाते हैं । यहाँ पर 'देवकामा' पाठ ही मिलता है । स्वामी दयानन्दजी के संस्करण में और सुप्रसिद्ध आर्य समाजी विद्वान् दामोदर सातवलेकरजी के ऋग्वेद भाष्य में भी 'देवकामा' पाठ मिलता है । महाभाष्यमें पतञ्जलि द्वारा उद्धृत पिप्पलाद संहिताके वचन में 'देवकामा' ही पाठ है । स्वामी दयानन्दजी द्वारा प्रकाशित संस्कार विधि में 'देवकामा' पाठ ही उद्धृत है ,द्वितीय संस्करण में भी यही पाठ है ,किन्तु तृतीय संस्करण में 'देवृकामा' कर दिया है और इसी संस्करण में इसका नियोग परक अर्थ किया गया है । पूर्व के संस्करणों में ऐसा नहीं था ।

साभार - वरुण शिवाय पाण्डे
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करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला विभूषिताम् ॥

सद्यः छिन्नशिरः खड्गवामाधोर्ध्व कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदञ्चैव दक्षिणोर्ध्वाधः पाणिकाम् ॥

महामेघ प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् । कण्ठावसक्तमुण्डाली गलद्रुधिर चर्चिताम् ॥

कर्णावतंसतानीत शवयुग्म भयानकां ।
घोरदंष्टां करालास्यां पीनोन्नत पयोधराम् ॥

शवानां कर संघातैः कृतकाञ्ची हसन्मुखीम् । सुक्कद्वयगलद् रक्तधारां विस्फुरिताननाम् ॥

घोररावां महारौद्री श्मशानालय वासिनीम् ।
बालर्क मण्डलाकार लोचन त्रितयान्विताम् ॥

दन्तुरां दक्षिण व्यापि मुक्तालम्बिकचोच्चयाम् ।
शवरूप महादेव हृदयोपरि संस्थिताम् ॥

शिवाभिर्घोर रावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरीत रतातुराम् ॥

सुखप्रसन्न-वदनां स्मेरानन सरोरुहाम ।
एवं सञ्चिन्तयेत् कालीं सर्वकामार्थ सिद्धिदाम् ॥
Forwarded from E - समिधा BOOKS
राम मंदिर मात्र पत्थरों के समूह का नाम नहीं हैं।
राम मंदिर श्रीराम के वंशजों के शौर्य एवं बलिदान की गाथा है।
जीवन का एक ही उद्देश्य होना चाहिए  --  कि मरते समय यह दुःख न हो कि जीवन बेकार नहीं गया | देहात में कहावत है कि सीखते-सीखते  "जब मनुष्य जीने लायक हो जाता है तो मर जाता है"  -- इस अफ़सोस के साथ कि जीना नहीं आया, फिर से अवसर मिले तो इस बार ठीक से जियेंगे | अतः फिर से जीने के लिए पुनः लौट आता है, लेकिन पिछली बार सीखे हुए सबकों को भूलकर गलतियों को दुहराता हुआ फिर से जीवन भर जीना सीखता रहता है , और मरते समय पुनः पछताता है ......| पिछले सबक भूलता नहीं तो इस चक्र में बारम्बार घूमने के बदले सीधे ऊपर उठता जाता | बिना प्राणायाम (या  कठोर तप अथवा भीषण दुःख) के कोई सबक भीतर नहीं धँसता ,  ऊपर-ऊपर निकल जाता है |
अपनी मृत्यु को जो सदैव याद रखे वह सांसारिक वासनाओं के झंझावातों में तिनके की तरह नहीं उड़ता और धीरे-धीरे जीने का तरीका सीख लेता है | मृत्यु को याद रखने के लिए ही कई साधू शमसान के पास रहने लगते हैं या भस्म शरीर पर लगाते हैं, ताकि यजुर्वेद के अन्तिम अध्याय (ईशोपनिषद) का यह वचन याद रहे  -- "भस्मान्तम् शरीरम्" , और उसी मन्त्र का यह वचन भी शरीर छोड़ते समय याद रहे -- "ॐ क्रतो स्मर | क्लिबे स्मर | कृतं स्मर |"  इसका सही अर्थ मुझे किसी आधुनिक भाषा के भाष्य में नहीं मिला, अतः यहाँ दे रहा हूँ, क्योंकि हिन्दू अन्त्येष्टि संस्कार में पूरे ईशोपनिषद का पाठ वैदिकों द्वारा कराया जाता है ताकि शरीर से जाते हुए जीव को सत्य का कुछ तो ज्ञान हो सके :--
ॐ (ईश्वर और जीवरूप में स्थित ब्रह्म-स्वरूप आत्मा) ही कर्ता (जीव) है (अतः जीव भी संभावना में सर्वशक्तिमान है, किन्तु शरीर को आत्म समझने की मूर्खता के कारण) क्लीव (सामर्थ्यहीन) शरीर हो जाता है जो शव बनकर पड़ा हुआ है (अब जाते समय शरीर में रहकर जो भी) कर्म किये उनका स्मरण करो (क्योंकि उनके फल ही आगे पाओगे)| तात्पर्य यह है कि ईश्वर का सामर्थ्य रहने पर भी अज्ञानता के कारण जीव सामर्थ्यहीन रहता है और कर्मफलों के जाल से निकल नहीं पाता |

आर्यसमाज के यजुर्वेद-भाष्य में "क्लिबे" का अर्थ क्लीव अर्थात सामर्थ्यहीन न देकर सामर्थ्य दे दिया है, जबकि स्कूल के छात्र भी जानते हैं कि क्लीव-लिंग नपुंसक-लिंग को कहते हैं | ऐसी गलती का कारण है "ॐ" का अर्थ केवल ईश्वर लिया है, अतः ईश्वर को सामर्थ्यहीन कैसे कहते, फलतः व्याकरण की टांग तोड़कर क्लीव का उलटा अर्थ दे दिया , जबकि ईशोपनिषद में ही स्पष्ट कहा गया है कि "जो पुरुष आदित्य में है वहीं मैं हूँ" , अर्थात यजुर्वेद का अन्तिम मन्त्र वेदान्त के अद्वैत मत का उदघोषण करता है, न कि भक्तिमार्ग के द्वैत का, जिसमें भक्त और भगवान् में भेद रहता है |

साभार - श्री विनय झा जी
अर्जुन को गाण्डीव धनुष कोनसे देवता ने दिया था?
Anonymous Quiz
14%
सूर्य देव
63%
इंद्र देव
18%
अग्नि देव
5%
वरुण देव
स्वामी दयानन्द जी का द्वेष पूर्ण भाष्य

मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक 85 में किस राजा से दान ग्रहण नही करना चाहिए ये लिखा है।
श्लोक -
दशसूनासमं चक्रं दशचक्रसमो ध्वजः ।
दशध्वजसमो वेषो दशवेषसमो नृपः ॥

इस श्लोक का प्रयोग दयानन्द जी ने अपनी पुस्तक संस्कारविधि में गृहाश्रमप्रकरण में किया है और इसका अनुवाद भी उन्होंने किया है।
श्लोक में 'दशध्वजसम: वेश:' शब्द का अर्थ दयानन्द जी ने 'पाषाण मूर्तियों के पूजक(पुजारी)' किया है।
जबकि इस शब्द का अर्थ ऐसा बिल्कुल नही है।

मनुस्मृति के इस श्लोक को दयानन्द जी प्रमाण के रूप में प्रयोग करते है और आर्य समाज के ही विद्वान डॉक्टर सुरेंद्र कुमार जी इस श्लोक को मिलावटी बताते है। अब कोन सही कोन गलत ये तो आर्य समाज वाले ही जाने।

E-समिधा
चूहा दिखाई दिया
गले में पड़ा सर्प न दिखा
ऐसी बुद्धि वाले स्वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी घोषित किए हुए हैं।

#कुएं_के_मेढ़क
जब आर्य समाजी गीता जी के श्लोकों को वेद विरुद्ध बताते है तो ऐसा लगता है पाँचवी कक्षा का बालक दसवीं कक्षा की किताबों को पढ़ कर फर्जी बता रहा है।

जैसे हम फिर उस बालक को कुछ नही समझाते क्योंकि जानते है वो अभी पूर्ण बात नही जानता वेसे ही आर्य समाजियों से बहस नही करना।

जहाँ दिखे मूर्ख जोड़ लीजिए हाथ।😁

और और और

मूर्ख को यह बताने में भी अपना समय नष्ट न करो कि वह मूर्ख है क्योंकि वह मानेगा ही नहीं कि वह मूर्ख है।
शास्त्र पढ़ते समय

वो - ये क्या लिखा है समझ नही आ रहा....
1 घण्टा उस ना समझ आने वाली बात पर विचार कर के अंत में निष्कर्ष निकलता है -
मिलावट नही कह सकते इसे ये तो उपनिषद रह गया, अर्थ में भी कुछ हेर फेर नही कर पा रहा..
थोड़ी देर और सोचने के बाद
अरे ये तो अलंकारिक कथा है ....

अब ये 'वो' कोन है
बूझो तो जाने 😂🤣
Forwarded from E - समिधा BOOKS
रुमाल पर बाम लगाते है जिस से आंसू आये...

https://youtube.com/shorts/nZa3pKk6osg?si=A9sQQt0WuNwNMTEZ
2024/05/29 01:58:26
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