कसूर तेरा नहीं है मेरी जान...
कसूर मेरा जो बिना किसी शर्त के विश्वास किया..।।
हादसा होता तो भुलाया भी जा सकता था...
पर तूने इश्क की तलब लगे अपनी बातों से,
तूने अपने करीब लाकर मेरे साथ विश्वास घात किया....
#Heer_writes
कसूर मेरा जो बिना किसी शर्त के विश्वास किया..।।
हादसा होता तो भुलाया भी जा सकता था...
पर तूने इश्क की तलब लगे अपनी बातों से,
तूने अपने करीब लाकर मेरे साथ विश्वास घात किया....
#Heer_writes
हिचकियों को लौटा रहें हो तुम दरवाजे से..
मेरे इंतजार की यूँ तौहीन ना किया करो !!
मेरे इंतजार की यूँ तौहीन ना किया करो !!
"इश्क़ वो नहीं जो वक्त के साथ बदल जाए,
इश्क़ तो वो है जो टूटकर भी उसी के लिए धड़कता रहे।
जिसे चाहा हो रूह से,
उसे भुला पाना इबादत तो क्या… गुनाह सा लगता है…" 🖤🔥
इश्क़ तो वो है जो टूटकर भी उसी के लिए धड़कता रहे।
जिसे चाहा हो रूह से,
उसे भुला पाना इबादत तो क्या… गुनाह सा लगता है…" 🖤🔥
किस्मत का कोई
इशारा समझ लो ...
मंजिल न सही
किनारा ही समझ लो...
चांद न सही
तारा ही समझ लो ...
नहीं उम्मीद मुझे
किसी चाहत की...
आदत ना सही
सहारा ही समझ लो....
#Heer_writes
इशारा समझ लो ...
मंजिल न सही
किनारा ही समझ लो...
चांद न सही
तारा ही समझ लो ...
नहीं उम्मीद मुझे
किसी चाहत की...
आदत ना सही
सहारा ही समझ लो....
#Heer_writes
अब मुझे
अच्छे दिनों से ज़्यादा
ठंडे दिनों का इंतज़ार है।.!!!.✍🏻
अच्छे दिनों से ज़्यादा
ठंडे दिनों का इंतज़ार है।.!!!.✍🏻
अगर जाना ही था तो आए ही क्यों?⭐️
अगर छोड़ना ही था तो हाथ थामा ही क्यों?💗
अगर बेवफ़ाई करनी ही थी तो वफ़ा मांगी ही क्यों?💫
अगर जुदा होना ही था तो मिले ही क्यों?🪐
अगर झूठ बोलना नहीं था तो वादा किया ही क्यों?🪐
अगर गैर बना ही था तो अपना बनाया ही क्यों?💫
अगर खोना ही था तो पाया ही क्यों?🪐
अगर रुलाना था तो हंसाया ही क्यों?🪐
अगर धोखा देना ही था तो मौका मांगा ही क्यों?🪐 अगर गलती करनी ही थी तो माफी मांगी ही क्यों? 🪐
और अगर नफरत ही करनी थी तो मोहब्बत की ही क्यों??❤️ ❤️ ❤️ ❤️
#Heer_writes
अगर छोड़ना ही था तो हाथ थामा ही क्यों?
अगर बेवफ़ाई करनी ही थी तो वफ़ा मांगी ही क्यों?
अगर जुदा होना ही था तो मिले ही क्यों?
अगर झूठ बोलना नहीं था तो वादा किया ही क्यों?
अगर गैर बना ही था तो अपना बनाया ही क्यों?
अगर खोना ही था तो पाया ही क्यों?
अगर रुलाना था तो हंसाया ही क्यों?
अगर धोखा देना ही था तो मौका मांगा ही क्यों?
और अगर नफरत ही करनी थी तो मोहब्बत की ही क्यों??
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मर्द तो हैं ही बदनाम ए औरत,,
____🍁😞
तू बता तेरे लिए एक मर्द काफी क्यूं नही ?,
____🍁😞
तू बता तेरे लिए एक मर्द काफी क्यूं नही ?,
दर्द –ए – मोहब्बत
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
मैं हो गई थी जिसकी,
उसको भी ये परवाह कहां थी।
वज़ूद अपना मिटाकर,
फिर से सब कुछ भूल कर,
उसकी होने लगी थी मैं।
फिर एक दफा कहीं खोने लगी थी मैं।
न जाने क्या चाहिए था,
क्या हासिल करने लगी थी मैं।
क्यों खुद को इतना मजबूर तब करने लगी थी मैं। वक्त लगा तो सही,
क्योंकि बहुत गहरा वो लगाव था वो...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
रोक लिया अब खुद को क्योंकि,
बहुत मुश्किल को पड़ाव था...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
#Heer_writes
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
मैं हो गई थी जिसकी,
उसको भी ये परवाह कहां थी।
वज़ूद अपना मिटाकर,
फिर से सब कुछ भूल कर,
उसकी होने लगी थी मैं।
फिर एक दफा कहीं खोने लगी थी मैं।
न जाने क्या चाहिए था,
क्या हासिल करने लगी थी मैं।
क्यों खुद को इतना मजबूर तब करने लगी थी मैं। वक्त लगा तो सही,
क्योंकि बहुत गहरा वो लगाव था वो...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
रोक लिया अब खुद को क्योंकि,
बहुत मुश्किल को पड़ाव था...
वो दर्द –ए – मोहब्बत की तरफ मेरा आखिरी झुकाव था...
#Heer_writes
🔴⚜️'शायरी संग्रह'⚜️🔴
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हमेशा मुस्कराना ज़रूरी नहीं होता
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
"सब ठीक हो जाएगा।"
"कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।"
"सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।"
"मुस्कुराओ, सब अच्छा है।"
कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, कभी खुद से भी। और पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं, जैसे डूबते को एक शब्दों की लकड़ी मिल गई हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाए?
हां, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, गुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएं होती हैं, और इनका बाहर आना, महसूस किया जाना, रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है। लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें अपनी सच्ची भावनाओं से काट देता है।
किसी के खो जाने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर या सिर्फ थक कर बैठ जाने की इच्छा में भी अगर हमें सिर्फ "पॉजिटिव रहने" की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को नामंज़ूर करना होता है।
"टॉक्सिक पॉजिटिविटी" दरअसल वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द को, उनकी कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि "तुम्हें तो खुश रहना चाहिए", "इसमें भी कुछ अच्छा देखो", "कम से कम तुम ज़िंदा हो"।
इसे समझना ऐसे है, जैसे किसी के गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना — यह सुंदर तो दिखेगा, पर भीतर से रिसता खून अब भी वहीं है।
रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है। जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह खुद को अकेला महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं। अपने आप से कहते हैं — "रोना नहीं है", "मज़बूत बनो", "मैं फील नहीं कर सकता", "जो बीत गया वो गया"। लेकिन हमारा मन रोना चाहता है, सिसकना चाहता है, थककर रुकना चाहता है।
क्या होगा अगर हम सिर्फ कुछ पल के लिए "असली" हो जाएं?
अगर हम अपने आंसुओं को बहने दें, अपने किसी प्रियजन से कहें — "मैं आज टूट रहा हूँ", और वह हमें जवाब में सिर्फ गले से लगा ले, बिना कोई सलाह दिए?
हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि "तुम आज कमजोर हो सकते हो।"
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?
सकारात्मक सोच अच्छी बात है, लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, हमारी थकान, हमारी असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है। एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमारे अपनों को, हमारे बच्चों को, हमारे साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ठीक होना ज़रूरी नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए — तो बस बैठिए, हाथ थामिए, और कहिए,
"मैं सुन रहा / रही हूं हूँ। रो लो। मैं हूँ यहां।"
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
"सब ठीक हो जाएगा।"
"कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।"
"सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।"
"मुस्कुराओ, सब अच्छा है।"
कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, कभी खुद से भी। और पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं, जैसे डूबते को एक शब्दों की लकड़ी मिल गई हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाए?
हां, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, गुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएं होती हैं, और इनका बाहर आना, महसूस किया जाना, रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है। लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें अपनी सच्ची भावनाओं से काट देता है।
किसी के खो जाने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर या सिर्फ थक कर बैठ जाने की इच्छा में भी अगर हमें सिर्फ "पॉजिटिव रहने" की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को नामंज़ूर करना होता है।
"टॉक्सिक पॉजिटिविटी" दरअसल वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द को, उनकी कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि "तुम्हें तो खुश रहना चाहिए", "इसमें भी कुछ अच्छा देखो", "कम से कम तुम ज़िंदा हो"।
इसे समझना ऐसे है, जैसे किसी के गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना — यह सुंदर तो दिखेगा, पर भीतर से रिसता खून अब भी वहीं है।
रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है। जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह खुद को अकेला महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं। अपने आप से कहते हैं — "रोना नहीं है", "मज़बूत बनो", "मैं फील नहीं कर सकता", "जो बीत गया वो गया"। लेकिन हमारा मन रोना चाहता है, सिसकना चाहता है, थककर रुकना चाहता है।
क्या होगा अगर हम सिर्फ कुछ पल के लिए "असली" हो जाएं?
अगर हम अपने आंसुओं को बहने दें, अपने किसी प्रियजन से कहें — "मैं आज टूट रहा हूँ", और वह हमें जवाब में सिर्फ गले से लगा ले, बिना कोई सलाह दिए?
हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि "तुम आज कमजोर हो सकते हो।"
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?
सकारात्मक सोच अच्छी बात है, लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, हमारी थकान, हमारी असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है। एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमारे अपनों को, हमारे बच्चों को, हमारे साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ठीक होना ज़रूरी नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए — तो बस बैठिए, हाथ थामिए, और कहिए,
"मैं सुन रहा / रही हूं हूँ। रो लो। मैं हूँ यहां।"
🥀🖤🖤Use khyal me lati hu ...
or malal krti hu....🖤🥀🥀
🥀🖤🖤 Mai khud hi aag lgati hu ...
or khud hi jalti hu... 🖤🥀🥀
#Heer_writes
or malal krti hu....🖤🥀🥀
🥀🖤🖤 Mai khud hi aag lgati hu ...
or khud hi jalti hu... 🖤🥀🥀
#Heer_writes
चॉक्लेट..
इंसानो से भी ज़्यादा स्वीट होते है
लेकिन कुछ इंसान चॉक्लेट से भी ज़्यादा स्वीट होते हैं
जैसे आप
ने तो मुझे देखा ही होगा...
😇😉😜😜😜😜
इंसानो से भी ज़्यादा स्वीट होते है
लेकिन कुछ इंसान चॉक्लेट से भी ज़्यादा स्वीट होते हैं
जैसे आप
ने तो मुझे देखा ही होगा...
😇😉😜😜😜😜